बसपा : सत्ता,सियासत, ससुराल का “माया”जाल

विवेक तिवारी
वरिष्ठ पत्रकार
बहुजन समाज पार्टी इन दिनों एक असमंजस के दौर से गुजर रही है। 2012 से 2024 तक के आम चुनाव में लगातार गिरते जनाधार, संगठन की निष्क्रियता और दलित राजनीति पर दूसरे दलों की दावेदारी ने मायावती को चिंतन के मोड़ पर ला खड़ा किया है। इसी क्रम में आकाश आनंद की फिर से वापसी को एक सामान्य घटनाक्रम समझना भूल होगी।
यह निर्णय पार्टी की आंतरिक राजनीति, निजी रिश्तों, वैचारिक संतुलन और उत्तराधिकार की गहराती जरूरत के बीच हुआ है — जिसमें सिर्फ आकाश नहीं, मायावती की पूरी रणनीति दांव पर है।
मायावती ने सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि आकाश उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी होंगे, 2019 के बाद उन्हें पार्टी का चेहरा बनाकर धीरे-धीरे उस संदेश को स्थापित किया गया। आकाश ने सोशल मीडिया, आधुनिक शैली के भाषणों और आक्रामक राजनीतिक भाषा से खुद को अलग पहचान दी। लेकिन यही तेज़ी, संगठन की परंपरागत संरचना से टकरा गई।
2023 में उन्हें अचानक हटा देना और 2024 के चुनाव बाद फिर से वापस लाना — यह दर्शाता है कि पार्टी के पास उनके अलावा कोई व्यावहारिक उत्तराधिकारी नहीं है। बसपा का एकछत्र नेतृत्व मॉडल मायावती के बाद नेतृत्वविहीन हो सकता है — और पार्टी इस खतरे को समझ चुकी है।
आकाश आनंद के पिछले निष्कासन का एक बड़ा कारण उनके ससुर और ससुराल पक्ष को लेकर मायावती की असहजता भी थी। माना जाता है कि उनकी पत्नी विपाशा का परिवार दक्षिणपंथी झुकाव वाला है और कुछ मामलों में भाजपा से निकटता के आरोप भी लगे हैं।
मायावती, जो हमेशा बसपा की वैचारिक स्वायत्तता को लेकर सतर्क रही हैं, किसी भी प्रकार की “संभावित घुसपैठ” के खिलाफ सतर्क हैं — खासकर जब मामला व्यक्तिगत रिश्तों के जरिए पार्टी पर असर डालने का हो और वैसे भी उनकी ख्वाहिश ये भी हो सकती है कि बीजेपी और उनके बीच मे कोई और सक्रिय न हो।
बीते कुछ वर्षों में मायावती ने भाजपा पर सीधे हमले से परहेज़ किया है। सड़क हो या चुनावी मंच — बसपा की आवाज़ काफी हद तक ‘गैर-संघर्षशील’ हो गई है। विपक्ष के कई आंदोलनों से दूरी, भाजपा सरकार के साथ टकराव से बचाव, और भाजपा के पक्ष में जाते हुए दलित वोटों को रोकने की निष्क्रियता — ये सभी संकेत एक सॉफ्ट कॉर्नर की ओर इशारा करते हैं।
कुछ ये मानते हैं कि सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग जैसी संस्थाओं का अप्रत्यक्ष दबाव भी मायावती की चुप्पी का कारण रहा है। इस स्थिति में आकाश का आक्रामक भाजपा-विरोधी तेवर पार्टी लाइन से टकरा गया — जो निष्कासन की एक बड़ी वजह बनी।
बसपा की सबसे बड़ी ताकत थी — उसका संगठित कैडर और दलितों में ‘अपनी पार्टी’ की भावना। लेकिन अब यही आधार कांग्रेस, सपा और भीम आर्मी जैसे विकल्पों में बंट रहा है। बीजेपी इसकी सबसे बड़ी दावेदार बनकर उभरी है सिवाय 2024 लोकसभा चुनाव के।
आकाश आनंद की वापसी इस बिखरते जनाधार को फिर से जोड़ने की एक कोशिश है। वे युवा हैं, सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, और दलित राजनीति के उभरते सवालों को नए सांचे में रखने की कोशिश कर सकते हैं।
लेकिन संगठन की पुरानी परिपाटी और वरिष्ठ नेताओं का ढांचा उन्हें खुलकर काम करने देगा या नहीं — यह एक बड़ा सवाल है।
यह वापसी कितनी स्थायी होगी, मायावती की अब तक की कार्यशैली से तय नहीं कहा जा सकता। यदि आकाश एक बार फिर तेज़ी दिखाते हैं, सार्वजनिक रूप से ‘स्वतंत्र’ बोलते हैं, या पार्टी लाइन से अलग कोई संवाद गढ़ते हैं, तो उन्हें दोबारा किनारे किया जा सकता है।
लेकिन अगर वे संगठन से सामंजस्य बैठाते हुए, धैर्य और परिपक्वता दिखाते हैं, तो पार्टी उन्हें धीरे-धीरे पूर्ण उत्तराधिकारी बना सकती है।
बसपा के लिए यह निर्णायक समय है। एक ओर उसे नेतृत्व परिवर्तन की आवश्यकता है, दूसरी ओर संगठनात्मक अनुशासन और वैचारिक स्थायित्व भी बनाए रखना है।
आकाश आनंद उस पुल की तरह हैं जो मायावती के मजबूत अतीत को भविष्य की संभावनाओं से जोड़ सकता है — बशर्ते उन्हें स्वतंत्र सोच और संगठन का समर्थन दोनों मिले। आकाश आनंद की वापसी बहुजन समाज पार्टी के इतिहास का सिर्फ एक अध्याय नहीं, बल्कि शायद अंतिम मोड़ हो सकता है — जहाँ से या तो पार्टी नए सिरे से उठेगी, या धीरे-धीरे राजनीतिक दृश्य से ओझल हो जाएगी।
मायावती के सामने विकल्प सीमित हैं — या तो वे सत्ता सौंपें, या पार्टी की प्रासंगिकता को संकट में डालें। आकाश की अग्निपरीक्षा अब शुरू हो चुकी है।