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जातीय जनगणना के बाद: वंचितों को निष्पक्ष न्याय कौन दिला सकता है — मौजूदा सत्ता या विपक्ष?

विवेक तिवारी
वरिष्ठ पत्रकार

जातीय जनगणना की घोषणा के बाद भारत की राजनीति एक निर्णायक मोड़ पर आ गई है। दशकों से ‘गिनती के बाद हक’ की बात करने वाली राजनीति अब एक नये युग में प्रवेश कर चुकी है, जहाँ केवल आंकड़े नहीं, बल्कि नीति, नीयत और निष्पादन की भी परीक्षा होगी क्योंकि आंकड़ों से सिर्फ सत्ता और चुनावी राजनीति ही सधेगी जबकि गिनती का असल मकसद जिसकी जितनी गिनती भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी और सामाजिक न्याय भी है।
असली सवाल यह है कि जब जातीय गणना के नतीजे आएंगे तो वंचित समाज को उसका हक निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से कौन दे सकता है ?मौजूदा सत्ता पक्ष या विपक्ष !

विपक्ष, विशेषकर समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने वर्षों से जातीय जनगणना की माँग को उठाया है। इन दलों का तर्क रहा है कि जब तक आबादी के अनुपात में भागीदारी नहीं होगी, तब तक सामाजिक न्याय अधूरा रहेगा। PDA (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) मॉडल अखिलेश यादव का प्रमुख चुनावी हथियार है।

कांग्रेस ने बिहार मॉडल की तर्ज पर जातिगत सर्वेक्षण को समर्थन दिया।

लेकिन जब बात नीति निर्माण और प्रशासनिक क्रियान्वयन की आती है, तो विपक्ष की भूमिका अस्पष्ट हो जाती है। इसका कारण है कि राहुल गांधी या अखिलेश यादव, ( जो दो सबसे बड़े विपक्षी दलों के सबसे बड़े नेता माने हैं ) उन्हें केंद्र सरकार चलाने का अनुभव बिल्कुल नही है.अब तक इन दोनों ने कोई स्पष्ट रोडमैप भी नहीं रखा है कि जनगणना के आँकड़ों का उपयोग कैसे किया जाएगा — योजना में, बजट में, और नौकरियों में क्योंकि बराबरी का अधिकार सिर्फ विधायक या सांसदों को जातीय आधार पर टिकट देने भर से तो नहीं मिलने वाला!
लंबे अरसे से चली आ रही इस गैर बराबरी का जनता अब नारों से ज्यादा समाधान चाहती है।

मौजूदा सत्ता (मोदी-योगी मॉडल): डेटा के साथ डिलीवरी की तैयारी

भाजपा सरकार ने, सबको चौंकाते हुए, जातीय जनगणना की घोषणा कर दी। यह उस पार्टी की तरफ से था जिसे आमतौर पर सामाजिक समीकरणों से ऊपर उठकर राष्ट्रवाद और विकास की राजनीति करने वाली माना जाता है हालांकि पार्टी के कुछ नेता जैसे केशव प्रसाद मौर्य जातीय जनगणना के समर्थन में बोल रहे थे लेकिन पार्टी ने स्पष्ट रूप से इस पर कभी कोई ठोस बात नही कही थी।बहरहाल केंद्र सरकार की घोषणा के बाद ये विषय पीछे छूट गया है।

अब यह साफ है कि मोदी सरकार सामाजिक आंकड़ों से नहीं डरती, बल्कि उनका उपयोग योजनाओं को और ज्यादा लक्षित और न्यायसंगत बनाने के लिए करेगी और इसके लिए उसे लगातार देश चलाने का अनुभव भी है।
जहां तक योगी आदित्यनाथ की सरकार का प्रश्न है,केंद्र की बहुतेरी योजनाओं को यूपी में लागू कर परिणाम देने में यह सरकार देश की कई राज्य सरकारों से आगे दिखती है।यूपी सरकार ने पहले ही यह दिखाया है कि योजनाओं का लाभ जाति और धर्म से परे जाकर कैसे पहुंचाया जा सकता है। राशन, आवास, उज्ज्वला, स्वरोज़गार ऐसी तमाम योजनाएं डिजिटल डेटा के आधार पर लाभार्थियों तक पहुंचाई गईं।सुशासन के दूसरे पहलू कानून व्यवस्था पर भी यूपी सरकार अव्वल दिखती है। इससे पता चलता है कि भाजपा सरकारें अब भावनात्मक राजनीति को ठोस प्रशासनिक नीति में बदलने की स्थिति में है।

जनगणना के बाद: असली काम क्या है?

1. आंकड़ों का विश्लेषण — कौन वर्ग कितना वंचित है, किस क्षेत्र में पिछड़ापन है।
2. नीतिगत बदलाव — आरक्षण, योजनाएं, बजट आवंटन में वास्तविकता के आधार पर संशोधन।
3. कार्यप्रणाली का पारदर्शी क्रियान्वयन — बिना भ्रष्टाचार, जातिगत पक्षपात या राजनीति के।
यह तीनों काम केवल वही कर सकता है जिसके पास नीतिगत दृष्टि, मजबूत प्रशासनिक ढांचा और राजनीतिक इच्छाशक्ति हो।

जातीय जनगणना ने एक ऐतिहासिक अवसर पैदा किया है — कि भारत सांकेतिक सामाजिक न्याय से आगे बढ़कर संरचनात्मक और ठोस न्याय की दिशा में जाए। वोट मांगने की राजनीति और विकास देने की नीति में फर्क होता है।

विपक्ष ने आवाज़ तो उठाई, लेकिन उसे अमल में लाने की क्षमता मौजूदा सत्ता के पास अधिक दिखती है — खासकर जब मोदी और योगी जैसे नेतृत्व में डेटा को डिलीवरी में बदलने का अनुभव मौजूद है।

अब जनता तय करेगी —
उसे गिनने वाला नेता चाहिए या बदलने वाला। भावनात्मक वायदे या निष्पक्ष क्रियान्वयन।

 

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