बड़ा मंगल लखनऊ में ही क्यों? अयोध्या में क्यों नहीं, पत्रकार विवेक तिवारी ने बताया कारण

विवेक तिवारी
वरिष्ठ पत्रकार
बड़ा मंगल लखनऊ में ही क्यों? अयोध्या में क्यों नहीं, अयोध्या धाम अपने मूल निवास से नौकरी के लिए लखनऊ आने के बाद यह प्रश्न अक्सर मेरे मन मस्तिष्क में कौंधता रहा। जवाब अब काफी कुछ समझ आ गया है।
जब भी ज्येष्ठ मास आता है, लखनऊ की गलियाँ सेवा, श्रद्धा और सौहार्द से भर जाती हैं। हर मंगलवार को ‘बड़ा मंगल’ के रूप में मनाया जाता है — हनुमान भक्तों का यह उत्सव लखनऊ की एक विशिष्ट पहचान बन चुका है।
अब सवाल उठता है कि जब हनुमान जी महाराज का गढ़ अयोध्या माना जाता है, तो वहाँ यह परंपरा क्यों नहीं है? इसका जवाब धार्मिकता में नहीं, बल्कि इतिहास और सामाजिक पृष्ठभूमि में छुपा है।
लखनऊ में बड़े मंगल की शुरुआत 18वीं सदी में नवाब आसफ़-उद-दौला के शासनकाल में हुई। कहते हैं, एक मंदिर के निर्माण के बाद नवाब ने पहले मंगलवार को सभी धर्मों के लोगों के लिए एक भंडारा आयोजित कराया। इस आयोजन ने एक नई परंपरा को जन्म दिया — जिसे “बड़ा मंगल” कहा गया।
यह धार्मिक होने के साथ-साथ सामाजिक समरसता का उत्सव बन गया। अयोध्या स्वयं श्रीराम की जन्मभूमि है और हनुमान जी के प्रति अगाध श्रद्धा वहां हर दिन दिखाई देती है।वहाँ हनुमानगढ़ी, कनक भवन और श्रीरामजन्मभूमि जैसे तीर्थस्थल सदियों से आस्था के केंद्र रहे हैं।
पर वहाँ की परंपराएं अधिक स्थायित्व और पूजा-अनुष्ठान आधारित रही हैं, जहाँ पर्व धार्मिक अनुशासन के अनुरूप चलते हैं जबकि बड़ा मंगल
एक लोक परंपरा है — जिसका उद्भव किसी धार्मिक ग्रंथ या शास्त्र से नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदना और नवाबी संरक्षण से हुआ।
लखनऊ की पहचान उसकी गंगा-जमुनी तहज़ीब से है। यहाँ परंपराएं अक्सर धर्मों के मेल से जन्म लेती हैं।
बड़ा मंगल भी एक ऐसा ही अवसर है जहाँ भक्ति के साथ-साथ सेवा और समर्पण की भावना रहती है। यहां हर समुदाय के लोग भंडारे, शरबत वितरण और चिकित्सा शिविर में भाग लेते है।अयोध्या और लखनऊ दोनों की आस्था में गहराई है, पर अभिव्यक्ति की शैली अलग है।
अयोध्या जहां सनातन परंपराओं की स्थायी भावभूमि है, वहीं लखनऊ में परंपरा और समाज के मिलन से नए त्योहार जन्म लेते हैं।
बड़ा मंगल इसका उत्कृष्ट उदाहरण है जो एक शहर की सांस्कृतिक संवेदना से जन्मा और पूरे समाज की साझी थाती बन गया।
बड़ा मंगल न तो किसी धार्मिक ग्रंथ में वर्णित है, न ही इसे किसी क्षेत्र की धार्मिक श्रेष्ठता से जोड़ा जा सकता है।
यह लखनऊ की ज़मीन से निकली एक जनभावना की परंपरा है, जो श्रद्धा के साथ-साथ सेवा, सौहार्द और समरसता की मिसाल बन गई है।