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उत्तराखंड के प्रसिद्ध 9 शक्तिपीठ और सिद्धपीठ मंदिर, जहां भक्तों की हर मनोकामना होती है पूरी

नवरात्रि हिंदुओं का एक प्रमुख पर्व है। नौ दिनों तक माता के 9 रूपों की पूजा और अर्चना की जाती है। उत्तराखंड हिंदू धर्म आस्था के प्रतीक मंदिरों के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है। यहां शक्तिपीठ और सिद्धपीठ मंदिर है। जिनके दर्शन के लिए नवरात्रों में भक्तों का तांता लगा रहता है। आज हम आपको उत्तराखंड के कुछ ऐसे ही प्रसिद्ध शक्तिपीठ और सिद्धपीठ के बारे में बताएँगे।

कुंजापुरी, टिहरी गढ़वाल

Maa Kunjapuri Devi Temple, Rishikesh Tehri Garhwal | माँ कुंजापुरी देवी  मंदिर

कुंजापुरी नाम एक शिखर पर स्थित मंदिर को दिया गया है जो समुद्र तल से 1676 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। कुंजापुरी मंदिर एक पौराणिक एवं पवित्र सिद्ध पीठ के रूप में विख्यात है। यह नरेंद्र नगर से 7 किमी, ऋषिकेश से 15 किमी और देवप्रयाग से 93 किमी दूर है। कुंजापुरी देवी दुर्गा का मंदिर है, यह शिवालिक रेंज में तेरह शक्ति पीठों में से एक है और जगदगुरु शंकराचार्य द्वारा टिहरी जिले में स्थापित तीन शक्ति पीठों में से एक है। जिले के अन्य दो शक्ति पीठो में एक सुरकंडा देवी का मंदिर और चन्द्रबदनी देवी का मंदिर हैं। कुंजापुरी, इन दोनों पीठों के साथ एक पवित्र त्रिकोण बनाता हैं। शक्ति पीठ उन जगहों पर हैं जहां भगवान् शिव द्वारा बाहों में हिमालय की ओर ले जा रहे देवी सती (भगवान् शिव की पत्नी एवं राजा दक्ष की पुत्री) के मृत शरीर के अंग गिरे थे। देवी सती के पिता राजा दक्ष के द्वारा भगवान शिव के बारे में अपमानजनक बातें सुनने पर सती यज्ञ कुण्ड में जल गई थी, जब भगवान शिव को सती की मृत्यु का पता चला तो वे शोक में चले गए और सटी के पार्थिव शरीर को लेके हिमालय की ओर निकल पड़े, शिव की उदासीनता को तोड़ने और सृष्टी को बचाने के लिए भगवान् विष्णु ने शिव द्वारा ले जा रहे सती के शरीर को सुदर्शन चक्र से काट दिया जिससे सती के अंग विभिन्न पहाड़ियों पर गिर गए थे।

सुरकंडा, टिहरी

Surkanda Devi Temple Story - इस मंदिर में आकर पूरी हुई थी देवताओं की मुराद,  जानिए यहां के रोचक रहस्य - Amar Ujala Hindi News Live

सुरकंडा पहाड़ी टिहरी जनपद के पश्चिमी भाग में 2750 मीटर की ऊंचाई पर सुरकंडा मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मसूरी चंबा मोटर मार्ग पर पर्यटन स्थल धनोल्टी से 8 कि०मी० की दूरी पर तथा नरेन्द्र नगर से लगभग 61 कि०मी० की दूरी पर स्थित है। नई टिहरी से 41 कि०मी० की दूरी पर चंबा मसूरी रोड पर कद्दुखाल नामक स्थान है जहाँ से लगभग 2.5 कि०मी० की पैदल चढाई कर सुरकंडा माता के मंदिर तक पहुंचा जाता है। जिस स्थान पर माता सती का सिर गिरा वह सिरकंडा कहलाया जो कालान्तर में सुरकंडा नाम से प्रसिद्ध हो गया।

चंद्रबदनी मंदिर, टिहरी

श्री चन्द्रबदनी सिध्पीठ उत्तराखंड

चंद्रबदनी मंदिर में सती के धड़ की पूजा की जाती है, लेकिन श्रद्वालुओं को धड़ के दर्शन नहीं कराए जाते हैं। यह मंदिर समुद्र तल से 2,277 मीटर पर स्थित है। चंद्रबनी मंदिर देवप्रयाग से हिंडोलाखाल मोटर मार्ग पर लगभग 22 किमी और नरेंद्रनगर से 109 किमी. दूर है। नई टिहरी-टिपरी मोटर मार्ग से भी चंद्रबदनी पहुंचा जा सकता है। नैखरी में सड़क से पांच-छह सौ मीटर पैदल चलकर मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।

मां धारी देवी, श्रीनगर गढ़वाल

Maa dhari devi fulfills the desire of devotees

उत्तराखंड के श्रीनगर से क़रीब 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मां धारी देवी के प्राचीन मंदिर को चमत्कारिक मंदिर भी कहा जाता है। ये प्राचीन मंदिर सिद्धपीठ ‘धारी देवी मंदिर’ के नाम से जाना जाता है। धारी देवी का ये पवित्र मंदिर बद्रीनाथ रोड पर श्रीनगर और रुद्रप्रयाग के बीच अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है। काली माता को समर्पित ये मंदिर झील के बीचों-बीच स्थित है. इसके बारे में मान्यता है कि, मां धारी उत्तराखंड के चारधाम की रक्षा करती हैं. धारी देवी माता पहाड़ों और तीर्थयात्रियों की रक्षक भी मानी जाती है। मंदिर में मौजूद मां धारी देवी की मूर्ति का ऊपरी आधा भाग अलकनंदा नदी में बहकर ‘धारो गांव’ के पास एक चट्टान से टकराकर रुक गया। ये मूर्ति तब से यहीं पर मौजूद है और श्रद्धालु दूर-दूर से देवी मां के दर्शन के लिए यहां आते हैं। इस मूर्ति की निचला आधा हिस्सा कालीमठ मंदिर में स्थित है, जहां माता काली के रूप में आराधना की जाती है।

नैना देवी मंदिर,नैनीताल

happy chaitra navratri story of naina devi shakti peeth of maa durga | मां  सती के यहां गिरे थे नैत्र, तब जाकर ये शक्ति पीठ बनी नैना देवी | Patrika News

नैनीताल में, नैनी झील के उत्त्तरी किनारे पर नैना देवी मंदिर स्थित है। 1880 में भूस्‍खलन से यह मंदिर नष्‍ट हो गया था। बाद में इसे दुबारा बनाया गया। यहां सती के शक्ति रूप की पूजा की जाती है। मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं। नैनी झील के बारें में माना जाता है कि जब शिव सती की मृत देह को लेकर कैलाश पर्वत जा रहे थे, तब जहां-जहां उनके शरीर के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्‍थापना हुई। नैनी झील के स्‍थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। इसी से प्रेरित होकर इस मंदिर की स्‍थापना की गई है।

चंडी मंदिर हरिद्वार

Maa Durga sits as a pillar in the Chandi Devi temple - चंडी देवी मंदिर में  खंभ के रूप में विराजमान है मां दुर्गा

गंगा के पूर्वी तट पर स्थित नील पर्वत के ऊपर चंडी मंदिर स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पैदल मार्ग से 4 किमी की चढ़ाई चढ़ सकते हैं। यहां रोपवे द्वारा भी पहुंच सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि शुंभ एवं निशुंभ असुरों का वध करने के पश्चात देवी ने नील पर्वत पर विश्राम किया था। नील पर्वत की दोनों चोटियों को इन दो असुरों के नाम से जाना जाता है।

मानसा देवी मंदिर

Navratra Special, Mata Mansa Devi, Panchkula Mansa Devi Temple - नवरात्र  स्पेशल: 175 साल पुराना है माता मनसा देवी मंदिर का इतिहास, जानिए खास बातें -  Amar Ujala Hindi News Live

हरिद्वार गंगा के उस पार, इस मंदिर के ठीक समक्ष स्थित बिल्व पर्वत के ऊपर मानसा देवी मंदिर है। हरिद्वार के पश्चिमी ओर स्थित बिल्व पर्वत पर यह मानसा देवी मंदिर स्थित है। यहां पर भी पैदल मार्ग से 3 किमी चढ़ते हुए पहुँच सकते हैं अथवा रोपवे की सुविधा ले सकते हैं। मानसा देवी सौम्य देवी हैं जो भक्तों की इच्छा पूर्ण करती हैं। ऐसी मान्यता है कि उनका जन्म भगवान शिव के मस्तक से हुआ था। इसीलिए उन्हे भगवान शिव की मानस पुत्री भी कहा जाता है।

सुरेश्वरी मंदिर, हरिद्वार

Sureshwari Devi Mandir Haridwar (Timings, History, Entry Fee, Images,  Aarti, Location & Phone) - Haridwar Tourism 2022

देवी दुर्गा का यह मंदिर हरिद्वार में राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के शांत जगंलो में स्थित है। सुरेश्वरी मंदिर हरिद्वार में स्थित एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर देवी दुर्गा और देवी भगवती को समर्पित है। हरिद्वार से सात किमी की दूरी पर रानीपुर के घने जंगलो में सिध्पीठ माँ सुरेश्वरी देवी सूरकूट पर्वत पर स्थित है। मंदिर का बड़ा ही पौराणिक महत्व है। यह मंदिर देवी दुर्गा और देवी भगवती को समर्पित है । इस मंदिर को सिध्पीठ के रूप में भी माना जाता है। हरिद्वार से सात किमी की दुरी पर रानीपुर के घने जंगलो में सिध्पीठ माँ सुरेश्वरी देवी सूरकूट पर्वत पर स्थित है। कहा जाता है कि माँ सुरेश्वरी के दर्शन करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है। यह भी मान्यता है कि माँ सुरेश्वरी देवी के दर्शन से चर्म रोगी एवम् कुष्ठ रोगी निरोगी हो जाते है। नवरात्रि में अष्टमी , नवमी और चतुर्दशी के दिन माँ के दर्शन का विशेष महत्व है , कहा जाता है कि इस दिन देवता भी माँ भगवती के दर्शन करने के लिए आते है।

अनसूइया मन्दिर, चमोली

चमोली के मंडल घाटी में पावन मंदिर; सती अनसूइया दरबार – घर पहुचंने से पहले  मनोकामना पूर्ण होती है | Himalaya Gaurav

सती माता अनसूइया मन्दिर चमोली जिले के मंडल नामक स्थान में स्थित है। मन्दिर तक पहुंचने के लिए ऋषिकेश, श्रीनगर और गोपेश्वर होते हुए मंडल तक पहुंचा जा सकता है। मंडल से माता के मन्दिर तक पांच किलोमीटर की खडी चढाई है।मन्दिर कत्यूरी शैली में बना है।ऐसा कहा जाता है जब अत्रि मुनि यहां से कुछ ही दूरी पर तपस्या कर रहे थे तो उनकी पत्नी अनसूइया ने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए इस स्थान पर अपना निवास बनाया था।कविंदती है कि, देवी अनसूइया की महिमा जब तीनों लोकों में गाए जाने लगी तो अनसूइया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने के लिए पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को विवश कर दिया। पौराणिक कथा के अनुसार तब ये त्रिदेव देवी अनसूइया की परीक्षा लेने साधुवेश में उनके आश्रम पहुंचें और उन्होंने भोजन की इच्छा प्रकट की। लेकिन उन्होंने अनुसूइया के सामने पण (शर्त) रखा कि वह उन्हें गोद में बैठाकर ऊपर से निर्वस्त्र होकर आलिंगन के साथ भोजन कराएंगी। इस पर अनसूइया संशय में पड गई। उन्होंने आंखें बंद अपने पति का स्मरण किया तो सामने खडे साधुओं के रूप में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश खडे दिखलाई दिए। अनुसूइया ने मन ही मन अपने पति का स्मरण किया और ये त्रिदेव छह महीने के शिशु बन गए। तब माता अनसूइया ने त्रिदेवों को उनके पण के अनुरूप ही भोजन कराया। इस प्रकार त्रिदेव बाल्यरूप का आनंद लेने लगे। उधर तीनों देवियां पतियों के वियोग में दुखी हो गई। तब नारद मुनि के कहने पर वे अनसूइया के समक्ष अपने पतियों को मूल रूप में लाने की प्रार्थना करने लगीं। अपने सतीत्व के बल पर अनसूइया ने तीनों देवों को फिर से पूर्व रूप में ला दिया। तभी से वह मां सती अनसूइया के नाम से प्रसिद्ध हुई।

 

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