संसदीय मर्यादाओं का हनन: लोकतंत्र की आत्मा पर संकट

राजेंद्र बहादुर सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में संसद और राज्य विधानसभा केवल विधायी संस्थाएं नहीं, बल्कि जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का मंच हैं। ये वे स्थान हैं जहां जनप्रतिनिधि जनता की समस्याओं पर विमर्श करते हैं, समाधान सुझाते हैं और राष्ट्र की दिशा तय करते हैं। परंतु विगत वर्षों में इन संस्थाओं की गरिमा पर जो आंच आई है, वह केवल चिंताजनक नहीं, बल्कि लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
संसद की कार्यवाही अब जनहित के मुद्दों पर चर्चा के लिए नहीं, बल्कि सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव का अखाड़ा बनती जा रही है। बहस की जगह शोरगुल, नारेबाजी और बहिर्गमन ने ले ली है। जनप्रतिनिधियों की पहचान उनके विचारों से नहीं, बल्कि उनके विरोध प्रदर्शन से होने लगी है। यह परिवर्तन न केवल संसदीय संस्कृति को दूषित करता है, बल्कि जनता के विश्वास को भी डगमगाता है।
सत्ता पक्ष अपने विधायी एजेंडे को बिना बाधा के लागू करना चाहता है, जबकि विपक्ष जनहित के मुद्दों पर चर्चा की मांग करता है। यह खींचतान अक्सर कार्यवाही को बाधित करती है, जिससे संसद का बहुमूल्य समय व्यर्थ होता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, कृषि संकट जैसे मुद्दे उपेक्षित रह जाते हैं। जब संसद में इन विषयों पर गंभीर विमर्श नहीं होता, तो नीतिगत सुधार भी अधर में लटक जाते हैं। और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है संसदीय शिष्टाचार का पतन। असंसदीय भाषा, व्यक्तिगत आरोप और अपमानजनक व्यवहार अब आम हो चले हैं। कई बार सदस्यों को निलंबित करना पड़ता है, जो लोकतंत्र की गरिमा के लिए शर्मनाक है। यह स्थिति न केवल लोकतंत्र को कमजोर करती है, बल्कि जनता के मन में निराशा और असंतोष भी भरती है।
यह नजर न केवल संसद का है बल्कि राज्य की विधानसभाओं के सत्रों में भी देखने को मिल रहा है उत्तर प्रदेश विधानसभा के मानसून सत्र में 13 अगस्त 11 बजे से लगातार 14 अगस्त की दोपहर बाद तक चली 24 घंटे से अधिक की कार्यवाही में भी यही नजारा देखने को मिला उससे पहले के दो दिन विरोध हंगामा और बायकाट का शिकार हुए। विधायी कार्यों के लिए जो समय दिया जाना चाहिए वह समय एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप में व्यतीत हो जा रहा है जनता से जुड़े मूल वास्तविक मुद्दे सदन के पटल से गायब दिख रहे हैं। बातें तो दोनों पक्षों के बीच होती है और दावे भी होते हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद खुद के वादे पुरा कर पाना विपक्ष के लिए हंगामे का एक बड़ा हथियार होता है। कुछ ऐसे ही मुद्दों को लेकर समाजवादी पार्टी ने प्रदेश की योगी सरकार विजन डॉक्युमेंट 2047 की चर्चा में घेरने का प्रयास किया। जिस पर सरकार ने बिंदुआर अपना पक्ष रखा। और विपक्ष को शांत कराने की कोशिश की।
इस संकट से उबरने के लिए सत्ता और विपक्ष दोनों को आत्ममंथन करना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि वे एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के दो अनिवार्य स्तंभ हैं। जनहित के मुद्दों पर मिलकर चर्चा करना, समाधान निकालना और नीतियाँ बनाना ही लोकतंत्र की आत्मा है। संसदीय मर्यादाओं का पालन और शिष्टाचार की रक्षा केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव है।
ब्रिटेन, कनाडा जैसे देशों में विपक्ष की भूमिका को सम्मान दिया जाता है और सत्ता पक्ष उसे सुनता है। भारत को भी ऐसी परंपराओं से सीख लेकर अपने संसदीय व्यवहार को सुधारना चाहिए। संसद को फिर से विमर्श का मंच बनाना होगा, न कि टकराव का।आज जब देश अनेक सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है, तब संसद का दायित्व और भी बढ़ जाता है। यदि जनप्रतिनिधि अपनी भूमिका को गंभीरता से नहीं निभाएंगे, तो लोकतंत्र केवल एक औपचारिक ढांचा बनकर रह जाएगा।
संसदीय मर्यादाओं की रक्षा केवल एक नैतिक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा की रक्षा है। यही वह समय है जब सत्ता और विपक्ष को अपने मतभेदों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में एकजुट होना होगा। तभी लोकतंत्र सशक्त होगा, जनता का विश्वास बहाल होगा और फिर चाहे वो संसद हो या फिर हो विधानसभाएं एक बार पुनः जनभावनाओं की सच्ची प्रतिनिधि बन सकेगी।