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“हिंदी भाषा की व्यापकता और विवशता : हिंदी दिवस पर एक आत्मअभिव्यक्ति “

जब मानव पृथ्वी पर प्रकट हुआ समय की गतिशीलता के साथ भौतिक और रासायनिक परिवर्तनों ने उसे मानसिक क्षमता और वाकशक्ति से समृद्ध कर दिया परिणाम स्वरूप भिन्न – भिन्न ध्वनियों से अनेक शब्द और शब्दो से वाक्य और वाक्यों से भाषा बनी जिसमे मानव पारिस्थितिकी के अनुरूप अर्थ प्रकट हुए जिसमे मनुष्य ने अपने अनुभव ,अनुभूतियों ,ज्ञान ,विज्ञान ,कला इत्यादि को संरक्षित करने और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करने का माध्यम बनाया जिस क्रम में अनेकों बोलियों एवं भाषाओं का अस्तित्व बना ।

मानव चिंतकों का मानना है की प्रत्येक मनुष्य में जीवित रहने की इच्छा ही आधारभूत भावना है ,भावना पर बुद्धि का अनुशासन है जो मानव विकास का नियम है। जब बुद्धि मनुष्य के अनुभव से जुड़ती है तो ज्ञान जन्म लेता है और जब अनुभूति से जुड़ती है तो विवेक जागृत होता है । यही ज्ञान और विवेक किसी राष्ट्र के तथा उसकी सभ्यता और संस्कृति के विकास के दस्तावेज हैं जिसे मातृभाषा या राष्ट्रभाषा में आकार मिलता है । भाषा किसी भी राष्ट्र की आत्मा है ,नदी पहाड़ और समुद्र राष्ट्र का निर्माण नही करते , राष्ट्र का निर्माण भाषा के बंधन में अपने आप को प्रकट करता है और चिरकाल तक जीवित रहता है।

भारतीय भाषाविदो के अनुसार हिंदी भाषा के मूल शब्द ,80 लाख से ज्यादा है,संस्कृत और हिंदी को जोड़ दिया जाए तो ये 102 करोड़ हो जाते है ,और यदि धातु रूपों के साथ जोड़ा जाए तो 102 अरब 80करोड़ से ज्यादा शब्द हमारे पास है । विश्व की अन्य किसी भी भाषा में इतने शब्द देने की समर्थ नही है । यही हमारी भाषा संस्कृति की विरासत है जिसमे हमारी आत्मा अर्थ पा कर शब्द विश्व का निर्माण करती रही है जहां अनन्त ज्ञान विज्ञान दर्शन की धारणाएं एवं संभावनाएं व्याप्त है इसी लिए भारत विश्वगुरू है।

वैश्विक पटल पर देखे तो वैश्विक जनगणना में 7115 भाषाओं को शामिल किया जाता है , जिसमे 150 भाषाएं ऐसी है जिनको बोलने वालों की संख्या प्रति भाषा 10 से कम है , लगभग 6 हजार ऐसी भाषाएं है जिनको बोलने वालो की संख्या प्रति भाषा 1 लाख से कम है , 8 अरब के मानव विश्व में हिंदी भाषा का स्थान तीसरा है । किंतु हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा नही है , हिंदी की व्यापकता में ऐसी विवशता है ? भारतीय जगत के लिए यह गंभीर चिंतन का बिंदु है।

भारतीय परिवेश में जैसे जैसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां बदली वैसे वैसे जनमानस में भाषा के पड़ाव भी बदलते रहे ,जिसमे जनमानस का सत्य आश्रय पाता है ,भारतीय जन मानस में कभी संस्कृत जनभाषा थी जिसका प्रमाण हमारे प्रारंभिक ग्रंथ है जिसमे अनन्त ज्ञान विज्ञान दर्शन संरक्षित है।

ऐतिहासिक कालक्रम के परिवर्तनों ने भगवान बुद्ध,महावीर, बुद्धदेव,शंकरदेव,नामदेव,तुलसीदास,सूरदास,कबीरदास को जन्म दिया सभी ने सामान्यजन की भाषा में सत्य का दर्शन कराया और प्राकृत,पाली,अपभ्रंस,तमिल,कन्नड़,मलयालम, असमी,ब्रज,बुंदेलखंडी, अवधी इत्यादि भाषाएं जागृत हुई और एकीकृत होकर एक रूप धारण किया जिसे हिंदी भाषा के रूप आज जाना जाता है।

हिंदी भाषा “मनसा वाचा कर्मणा” की एक वैज्ञानिक निस्पत्ति है ,जो सत्य का शोध है ,मानवता की आवश्यकता है,प्रकृति और पुरुष का एकात्म है ,शब्द से आत्मा की अभिव्यक्ति है क्योंकि जो हम सोचते है वही बोलते है और जो बोलते है वही करते है , यही हम भारतीयों का आचरण व्यवहार का सर्वोच्च मूल्य है जिसे हम जीते है।

हिंदी की व्यापकता और वैज्ञानिकता को अंग्रेजो ने समझ और इसके पतन की आधारशिला रखी जिसका सूत्रपात मैकाले की नीति से होता है , सन 1834 में मैकाले भारत आता है और संपूर्ण भारत का भ्रमण करने के पश्चात अंग्रेजी कांग्रेस (सांसद)में कहता है।

” भारत में हिंदी रीढ़ की हड्डी है अगर इस रीढ़ को तोड़ दिया जाए तो भारत गिर पड़ेगा “( स्वर्गीय श्री राजीव दीक्षित के एक भाषण से) ऐसा ही हुआ हमारे साथ 1853 में भारत में अंग्रेजी भाषा का बिल पास हुआ जिसका परिणाम आज हम भारतीयों के मन मस्तिष्क ,कार्यकालिका,न्यायपालिका और व्यवस्थापिका पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है ।

यह खुद के देश में खुद की विवशता है जहां सामान्य जनमानसअपनेमूल्यों,संस्कारों,परंपराओं,विरासतों,नियम,नैतिकताओं और खुद को हेय दृष्टि से देखता है ,आत्मगौरव विलासिता में विलीन हो रहा है,अस्मिता अब व्यक्तिवादी हो कर सुख सुविधा और अधिकार की मांग कर रही है ,चिंतन और सृजन अनेक प्रकार के मायावी वादों में लिपट कर असत्य को सत्य का रूप सिद्ध करने में लगे है ,जीवन प्रत्याशा बढ़ाने के नाम पर हम जीवन के मूल्य को ही खो रहे है क्योंकि हमने अपनी कार्यसंस्कृति से ,मन वचन कर्म की आधार सामान्य जनमानस की भाषा संस्कृति से राष्ट्र की चेतना को तोड़ दिया है जो गंभीर चिंतन और शोध का विषय है।

अजीब विडंबना है भारत की आजाद मानसिकता में सामान्य जनमानस की भाषा हिंदी को मातृभाषा,राज्य भाषा,राष्ट्रभाषा कह कर घर में सीमित कर दिया और विदेशी भाषा अंग्रेजी को राष्ट्र की चेतना से जोड़ कर काम दे दिया।

कितना पीड़ा दायक है यह सोचना की अगर हर प्रकार की अंग्रेजी को मिला दिया जाए जैसे ब्रिटिश अमेरिकन इत्यादि तो कुल 65 हजार शब्द की संस्कृति है और हमारी केवल संस्कृत हिन्दी और धातुरूपो सहित 102 अरब 80 करोड़ से ज्यादा शब्द की भाषा संस्कृति है और हम अज्ञानी है ।

इसी पीड़ा को 29 दिसंबर 1934 को हिंदी प्रचार सभा ,मद्रास के दीक्षांत भाषण में प्रेमचंद ने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया था ” हमारी पराधीनता का सबसे कठोर ,सबसे अपमान जनक,सबसे व्यापक अंग अंग्रजी भाषा का प्रभुत्व है ,सभ्य जीवन के हर एक विभाग में अंग्रजी भाषा ही हमारी छाती पर मूंग दल रही है ”

यह बात बहुत उलझन पैदा करती है की 200 देशों में अंग्रेजो ने शासन किया और जब देश सभी आजाद हुए तो सभी ने अंग्रजी भाषा को अपनी कार्यसंस्कृति से अलग कर दिया केवल भारत ही अकेला ऐसा देश है जिसने अंग्रेजी को नहीं छोड़ा ।

भारत की जनगणना में पिछले कुछ दशकों की हिंदी भाषा की स्थिति पर ध्यान दे तो हमे प्राप्त होता है की 1991 की जनगणना में 31 भाषाओं को शामिल किया गया था जहां कुल 83 करोड़ लोगो में 39% लोगो की प्रथम भाषा हिंदी थी, 2001 में 102 करोड़ लोगो में 41% लोगो की प्रथम भाषा हिंदी थी ,2011 में 121 करोड़ लोगो में 43.6% लोगो की भाषा हिंदी थी ,2021 के आंकड़े अप्रकाशित है फिर भी विद्वानों का अनुमान है की लगभग 47% लोगो की प्रथम भाषा हिंदी है , यदि प्रथम ,द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप में देखा जाए तो लगभग 70% लोगो की भाषा हिंदी है । हिंदी की देश के अंदर इतनी व्यापकता है फिर भी हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा नही है , विज्ञान की भाषा नही समझा जाता , उच्च शिक्षा में हिंदी की कार्य संस्कृति नही है हिंदी में अपनी अभिव्यक्ति करने वाले को नीचा समझा जाता है , यह भारतीय जनमानस की कैसी विवशता है ? गंभीर चिंतन का विषय है।

आज हम सभी हिंदी के प्रति बहुत आदर भाव प्रदर्शन करके गोष्ठी,सम्मेलन,भाषण,लेखन इत्यादि कर रहे किंतु हम अपने देश की अनेक परीक्षा के प्रश्न पत्रों में लिखा पाते है कि” हिंदी और अंग्रेजी के प्रश्नों में विवाद होने की स्थिति में अंग्रेजी में लिखा गया ही सही माना जायेगा ” हो भी क्यों न जिस देश के सर्वोच्च न्यायालय में बात रखने का अधिकार सिर्फ अंग्रेजी में हो , 28 राज्यो के उच्च न्यायालयों में केवल 4 राज्यो के उच्च न्यायालय में ही हिंदी में बात रखने का अधिकार हो वहां न्याय हिंदी के पक्ष में कैसे बोलेगा वो तो अंग्रेजी को ही सही मानेगा । यह कैसी विवशता है हमारी ? किंतु नही मात्र भाषा या राष्ट्रभाषा दिवस की शुभकामना ।

इतिहास साक्षी है बिना जनभाषा या मात्रभाषा या राष्ट्रभाषा के विकास के बिना कोई भी देश प्रगति नहीं कर पाया इस बात को आज हम सभी को गंभीरता से समझना पड़ेगा तभी सच्चे अर्थ में हिंदी दिवस को पूर्णता प्राप्त होगी नही तो सच में आजादी अभी अधूरी है ..
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सच ही कहा है कि
” निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल ।।…”

राष्ट्रभाषा दिवस (हिंदी दिवस १४/९/२०२४) की समस्त देशवासियों को अनन्त हार्दिक शुभकामनाएं l

डॉक्टर संजय कुमार द्विवेदी
पोस्ट डाक्टोरल फेलो
(आईसीएसएसआर,नई दिल्ली)
मानवविज्ञान विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
प्रयागराज ।
उत्तरप्रदेश,भारत ।

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