बिहार चुनाव: कांग्रेस की ‘नई राह’ तलाश, गठबंधन के भीतर वर्चस्व की जंग

पटना। बिहार विधानसभा चुनाव सिर्फ सत्ता पक्ष—जेडीयू, बीजेपी और एनडीए के अन्य दलों—के लिए ही नहीं, बल्कि विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक (INDIA Bloc) और खासकर कांग्रेस के लिए भी निर्णायक साबित होने वाला है। यह चुनाव केवल 2025 तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसके नतीजे 2026 में होने वाले असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों की दिशा भी तय करेंगे।
कांग्रेस के लिए यह चुनाव बेहद अहम है। लोकसभा चुनाव 2024 में पार्टी ने 2019 की तुलना में सीटों में मामूली बढ़ोतरी जरूर की, लेकिन सत्ता तक पहुंचने का उसका सपना अधूरा ही रह गया। अब बिहार में अच्छा प्रदर्शन करना कांग्रेस के लिए एक मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने जैसा होगा, जो उसके राजनीतिक पुनरुत्थान की कहानी लिख सकता है।
35 साल पुराना सपना
कांग्रेस की मौजूदा रणनीति को समझने के लिए हमें 1990 की ओर लौटना होगा। उस समय बिहार ही नहीं, पूरे देश में कांग्रेस का गहरा जनाधार था। लेकिन 90 के दशक के बाद गठबंधन की राजनीति ने जन्म लिया और क्षेत्रीय दलों का प्रभाव तेजी से बढ़ने लगा। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस, जो कभी केंद्र से लेकर राज्यों तक एकछत्र राज करती थी, अब कई जगहों पर हाशिए पर पहुंच गई।
आज की हकीकत यह है कि कांग्रेस किसी भी राज्य में अकेले सत्ता हासिल करने की स्थिति में नहीं है। उसे क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करना ही पड़ता है। मगर, इस गठबंधन की मजबूरी के बावजूद कांग्रेस चाहती है कि उसमें उसका वर्चस्व साफ तौर पर दिखे।
गठबंधन से अलग राह
इस बार बिहार चुनाव में कांग्रेस ने कुछ अलग करने की कोशिश शुरू की है। उसने सभी 243 सीटों पर योग्य उम्मीदवारों की तलाश शुरू कर दी है। यानी वह अब केवल सहयोगी दलों पर निर्भर नहीं रहना चाहती, बल्कि सीटों पर अपनी ‘प्राकृतिक दावेदारी’ जताकर गठबंधन के भीतर अपना वजन बढ़ाना चाहती है।
दिल्ली के वरिष्ठ कांग्रेस नेता अजय माकन को उम्मीदवार चयन की जिम्मेदारी सौंपी गई है। उनकी अगुवाई में स्क्रीनिंग कमेटी ने अगस्त के मध्य में टिकट चाहने वालों से मुलाकात की। इस बार पार्टी की नजर सिर्फ ऐसे उम्मीदवारों पर है जिनका स्थानीय जनाधार मजबूत हो और जीतने की वास्तविक क्षमता रखते हों।
बदलती राजनीति और कांग्रेस की जद्दोजहद
दरअसल, कांग्रेस अब गठबंधन की राजनीति को महज ‘सीट शेयरिंग’ तक सीमित नहीं रखना चाहती। उसका लक्ष्य है कि वह गठबंधन में भी अपनी अहमियत बढ़ाए और मतदाताओं को यह भरोसा दिलाए कि वह केवल सहयोगी पार्टी नहीं, बल्कि नेतृत्व करने की भी काबिलियत रखती है।
बिहार में इस रणनीति की सफलता या असफलता का असर न सिर्फ राज्य बल्कि पूरे देश की राजनीति पर पड़ेगा। अगर कांग्रेस यहां जमीन मजबूत कर लेती है तो यह संकेत होगा कि वह अपनी खोई ताकत वापस पाने की राह पर है। और अगर वह असफल रही, तो एक बार फिर वह क्षेत्रीय दलों की ‘छोटी साझेदार’ बनकर रह जाएगी।बिहार की राजनीति हमेशा राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करती रही है। यही वजह है कि कांग्रेस के लिए यह चुनाव महज सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि साख की जंग है। यह वही मोड़ है, जहां से तय होगा कि कांग्रेस भविष्य में गठबंधन की राजनीति में ‘सहयोगी’ रहेगी या ‘नेतृत्वकर्ता’।