बिहार में वोटर लिस्ट से 51 लाख नाम हटाने की तैयारी पर बवाल, विपक्ष ने SIR को बताया ‘लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला’

पटना/दिल्ली। बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान (Special Intensive Revision – SIR) को लेकर जबरदस्त सियासी घमासान छिड़ गया है। चुनाव आयोग द्वारा चलाए जा रहे इस राज्यव्यापी सर्वे में अब तक की जांच में लगभग 51 लाख नाम मतदाता सूची से हटाए जाने की संभावना जताई गई है, जिससे राजनीतिक हलकों में उबाल आ गया है।
चुनाव आयोग के मुताबिक,
18 लाख मतदाता मृत पाए गए,
26 लाख मतदाता स्थायी रूप से बिहार से बाहर जा चुके हैं,
7.5 लाख लोग दो जगहों पर दर्ज हैं,
जबकि 11,000 से ज्यादा मतदाताओं का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला।
आयोग का कहना है कि यह अभियान मतदाता सूची को पारदर्शी बनाने और फर्जी वोटरों को हटाने के लिए जरूरी है। लेकिन इस कदम पर विपक्षी दलों ने सवाल खड़े कर दिए हैं। आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी दल इस अभियान की प्रक्रिया पर नाराज हैं। तीन दिन से विधानसभा में काले कपड़े पहनकर विधायकों ने विरोध प्रदर्शन किया, सदन के गेट को जाम किया गया और मार्शलों के साथ धक्का-मुक्की भी हुई।
दिल्ली तक यह मुद्दा पहुंच चुका है। संसद में विपक्ष ने SIR को लेकर जोरदार हंगामा किया। ‘SIR वापस लो’ के नारों के साथ प्रदर्शन हुए और दोनों सदनों की कार्यवाही लगातार बाधित रही। विपक्ष की मांग है कि संसद में इस पर चर्चा कराई जाए, लेकिन सरकार ने साफ कर दिया है कि यह चुनाव आयोग की प्रक्रिया है और इसमें उसका कोई हस्तक्षेप नहीं है, इसलिए संसद में बहस नहीं की जाएगी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्ष पर पलटवार करते हुए तेजस्वी यादव को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा, “जब तुम्हारी उम्र कम थी, तब तुम्हारे माता-पिता मुख्यमंत्री थे, लेकिन कोई काम नहीं हुआ। अब हम तीन लाख करोड़ के बजट से विकास कर रहे हैं, तो उल्टा-सीधा बोल रहे हो।
वहीं, तेजस्वी यादव ने कहा कि उन्हें SIR से नहीं, बल्कि इसकी प्रक्रिया से आपत्ति है। उन्होंने आरोप लगाया कि अब तक आयोग ने कोई प्रेस वार्ता नहीं की, और 11 दस्तावेज मांगे गए जिनमें आधार व राशन कार्ड को अमान्य बताया गया। विपक्ष का कहना है कि इस प्रक्रिया के जरिए बाहर काम कर रहे लाखों बिहारी मतदाताओं को सूची से बाहर किया जा रहा है, जो उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर सीधा हमला है। वहीं, सरकार इसे एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था की पहल बताते हुए बचाव की मुद्रा में है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद सिर्फ वोटर लिस्ट तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि आगामी चुनावों में इसकी गूंज सुनाई दे सकती है। सवाल यह भी है कि क्या SIR सिर्फ एक तकनीकी प्रक्रिया है, या इसके पीछे कोई राजनीतिक मंशा छिपी है? पारदर्शिता और संवाद की कमी इस प्रक्रिया पर जनता के भरोसे को प्रभावित कर सकती है। SIR के जरिए जहां चुनाव आयोग लोकतांत्रिक सुधार का दावा कर रहा है, वहीं विपक्ष इसे सत्तारूढ़ दल का राजनीतिक औजार बता रहा है। यह मुद्दा बिहार की राजनीति में बड़ा मोड़ ला सकता है—सिर्फ मतदाता सूची का नहीं, बल्कि राजनीतिक समीकरणों का भी।