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आपातकाल के 50 साल: एक रात जिसने देश की आवाज़ छीन ली, कलम तोड़ी गई और अखबारों पर ताले पड़े

भारत में आपातकाल के 50 वर्ष आज पूरे हुए हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस आपातकाल को काले दिन की भी संज्ञा दी गई है। 25 जून 1975 की वो रात आज भी भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे काली रातों में गिनी जाती है। उस रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देशभर में आपातकाल लागू कर दिया था। संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत भारत को आंतरिक संकट का सामना कराता हुआ बताया गया, लेकिन हकीकत कुछ और थी। आपातकाल 21 महीनों तक चला, और इस दौरान देश में नागरिक अधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता और विरोध की हर आवाज़ पर ताले जड़ दिए गए।

क्यों लगा था आपातकाल?

इसकी शुरुआत हुई 12 जून 1975 को, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दे दिया। कोर्ट के फैसले से सत्ता संकट में थी, लेकिन इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने की बजाय राष्ट्रपति से देश में आपातकाल लागू करने की सिफारिश कर दी। इसके बाद 25 जून की रात को ही सभी बड़े विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई और सैकड़ों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया।

क्या-क्या बदला उस दौर में

प्रेस पर सेंसरशिप: अखबारों को खबरें छापने से पहले सरकार को दिखानी पड़ती थीं। विरोध में कई संपादकों ने इस्तीफा दिया।

नसबंदी अभियान: जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जबरन नसबंदी की गई। सबसे ज़्यादा गरीब और कमजोर तबके प्रभावित हुए।

अधिकारों का हनन: नागरिक स्वतंत्रता खत्म कर दी गई। पुलिस को बिना वारंट गिरफ्तारी का अधिकार मिल गया।

विरोध पर बैन: कोई धरना, प्रदर्शन या रैली नहीं हो सकती थी। छात्रों और मजदूर संगठनों को कुचल दिया गया।

आपातकाल के सबसे बड़े गवाह वो आम लोग हैं, जो इतिहास में दर्ज नहीं हैं। प्रेस कर्मचारी, छात्र, छोटे नेता, मजदूर — जिन्हें उठाकर जेल में डाल दिया गया, या नौकरी से निकाल दिया गया।

1977 में बहाल हुआ लोकतंत्र

जनता पार्टी के नेतृत्व में विपक्ष ने इंदिरा गांधी के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाया। आखिरकार मार्च 1977 में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी की कांग्रेस को करारी हार मिली। आपातकाल के खिलाफ जनता ने वोट के जरिए जवाब दिया और पहली बार देश में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।

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