अद्भुत मिसाल : समाज के मन की आंखें खोलने में जुटे दृष्टिबाधित जॉर्ज
नई दिल्ली, 28 जनवरी (आईएएनएस)| वह दस महीने की उम्र में मैनेंजाइटिस की समस्या से पीड़ित हो गए थे और इस कारण उनकी आंखों की रोशनी क्षीण हो गई थी, लेकिन अपनी राह में आने वाली हर अड़चन को पार करते हुए वह आज न केवल खुद एक सफल और पूर्ण जीवन जी रहे हैं, बल्कि अन्य दृष्टिबाधितों की जिंदगी में भी उजाला फैलाने के लिए अथक प्रयासों में जुटे हैं।
भारत की शीर्ष विज्ञापन कंपनियों ओगिल्वी एंड मैथर और एडवर्टाजिंग एंड सेल्स प्रमोशन कंपनी के साथ करीब 10 वर्ष के सफल करियर के बाद वह अब एक सामाजिक उद्यमी, एक प्रेरक वक्ता और एक कम्युनिकेटर हैं।
उन्होंने दृष्टिबाधित लोगों के लिए समाज के प्रचलित नजरिए में बदलाव लाने के लिए ही काम नहीं किया, बल्कि ‘वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल’ के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में 1998 में उन्होंने नेत्रहीनों को खुद पर भरोसा करने के लिए प्रेरित करने और उनके सपनों को उड़ान देने के लिए पहले नेत्रहीन क्रिकेट विश्व कप का आयोजन भी किया।
जॉर्ज की जिंदगी को एक नया अर्थ मिला, क्योंकि उनके माता-पिता ने उनकी अक्षमता को उनकी क्षमताओं से ज्यादा बड़ा नहीं समझा। उन्होंने जॉर्ज को नेत्रहीन बच्चों के लिए बने स्पेशल स्कूल में भेजने के स्थान पर एक सामान्य स्कूल में भेजने का फैसला लिया, ताकि वे दृष्टि से धन्य लोगों की दुनिया में नेत्रहीनता के साथ जीवन जीने की कटु सच्चाइयां जान पाएं।
जॉर्ज ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, संकीर्ण दृष्टिकोण वाले समाज में नेत्रहीनता से पीड़ित लोगों की पूरी शख्सियत को ही बेहद दयनीय दृष्टि से देखा जाता है और इस कारण अधिकांश तौर पर उन्हें बुनियादी अवसर भी नहीं दिए जाते। उनकी पूरी शख्सियत को केवल उनकी नेत्रहीनता से ही जोड़ कर देखा जाता है और कोई भी उन्हें या उनकी क्षमताओं को उनकी अक्षमता से अलग रखकर नहीं देखता।
जॉर्ज कहते हैं, हर नेत्रहीन व्यक्ति समाज के लिए एक संसाधन बन सकता है, इसलिए केवल उनकी जरूरतें पूरी करने पर ही ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि उनमें निवेश किया जाना चाहिए और उनका सशक्तिकरण किया जाना चाहिए ताकि उन्हें एक सम्मानजनक जीवन जीने का मौका मिले।
दुनिया में हर पांचवां नेत्रहीन व्यक्ति एक भारतीय है और हर साल इस आंकड़े में 25,000 नए मामले जुड़ जाते हैं।
जॉर्ज आज जो कुछ भी हैं, उसका श्रेय वह अपने माता-पिता और ईश्वर को देते हैं। जॉर्ज के पिता एम.जी. अब्राहम एक इंजीनियर और आर्किटेक्ट हैं और उनकी मां सुशीला एक होममेकर हैं।
वह कहते हैं, आमतौर पर केवल समाज ही नेत्रहीनों के प्रति उदासीन नहीं होता, बल्कि उनका परिवार भी उन्हें एक बोझ की तरह देखता है। मैं बेहद खुशकिस्मत हूं कि मैं ऐसे माता-पिता के घर में जन्मा जिन्होंने कभी भी मेरी दृष्टिबाधिता को किसी कमी या ऐसी रुकावट के रूप में नहीं देखा जो मेरे एक सफल करियर और पूर्ण जीवन जीने ही राह में अड़चन बने।
जॉर्ज अपनी नौकरी से काफी संतुष्ट थे, लेकिन 1988 में पहली बार अपनी पत्नी रूपा के साथ नेत्रहीनों के एक स्कूल के दौरे ने उनकी आंखें खोल दीं। वह वहां रह रहे नेत्रहीनों की दयनीय स्थिति और उनके साथ जो बर्ताव किया जाता था, उसे देखकर भीतर तक हिल गए। उनके भीतर बेकार और किसी काम का न होने की मानसिकता भरी जा रही थी।
देहरादून स्थित ‘नेशनल इंस्टीटयूट फॉर द विजुअली हैंडीकैप्ड’ का दौरा करना जॉर्ज के जीवन का एक अन्य मोड़ साबित हुआ। वहां उनका सामना पूरे जोश और उत्साह के साथ क्रिकेट खेलते नेत्रहीनों से हुआ, जिसने उनके पुराने सपने को फिर जीवंत कर दिया। वे ऐसी बॉल से क्रिकेट खेल रहे थे, जिसमें आवाज होती थी। खुद एक फास्ट बॉलर बनने का सपना लिए बड़े हुए जॉर्ज ने उसी समय फैसला किया कि वे नेत्रहीनों के लिए राष्ट्रीय क्रिकेट टूनार्मेंट का आयोजन करेंगे।
वह कहते हैं, मुझे अहसास हुआ कि नेत्रहीनों को बॉल लपकते देखना, बैट से बॉल उछालते देखना और उसके पीछे दौड़ते देखना, काला चश्मा पहने और हाथों में छड़ी लिए एक असहाय व्यक्ति वाली नेत्रहीनों की पुरानी छवि को तोड़ने में मदद करेगा और एक योग्य और सक्षम व्यक्ति की छवि उभारेगा। इतना ही नहीं, यह खेल शारीरिक फिटनेस, गतिशीलता आदि के अलावा नेतृत्व, टीम वर्क, अनुशासन, महत्वाकांक्षा, रणनीतिक कौशल जैसे जीवन कौशल विकसित कर सकता है।
जल्द ही उन्होंने दिसंबर, 1990 में नेत्रहीनों के लिए पहला राष्ट्रीय क्रिकेट टूर्नामेंट आयोजित किया। यह एक वार्षिक आयोजन बन गया। 1996 में उन्होंने ‘वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल’ का गठन किया और उसके संस्थापक अध्यक्ष बने। 1998 में उन्होंने दिल्ली में नेत्रहीनों के लिए पहले विश्व कप का आयोजन किया।
वर्ष 2007-08 में उन्होंने नेत्रहीनों के लिए क्रिकेट को एक युवा समूह को सौंप दिया। क्रिकेट के ये राष्ट्रीय टूर्नामेंट आज भी होते हैं और इसके साथ ही टी-20 विश्व चैम्पियनशिप भी लॉन्च की गई है। भारत ने 2014 में विश्व कप जीता था और उसके बाद हाल ही में 2018 में भी पाकिस्तान को शिकस्त देते हुए भारत ने विश्व कप पर जीत हासिल की है। इन उपलब्धियों ने देश का ध्यान खींचा, खिलाड़ियों को नकद पुरस्कार दिए जाने लगे। 2014 के कप विजेता कप्तान शेखर नाइक को भी पहचान मिली जिसके वह हकदार थे और उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया।
जॉर्ज ने जो मुहिम शुरू की थी, वह आज जिन ऊंचाइयों पर पहुंच गई है, उसे देखकर वह बेहद खुश हैं।
जॉर्ज कहते हैं, असली समस्या नेत्रहीनता नहीं है, समाज और खुद नेत्रहीनों का दृष्टिकोण है, जिन्हें यह मानने पर मजबूर कर दिया जाता है कि वे सामान्य जीवन नहीं जी सकते।
जॉर्ज भली भांति जानते थे कि इस मानसिकता को बदलना एक दुश्कर कार्य है, लेकिन वह ऐसा करने के लिए दृढ़ता से जुटे हैं।
उन्होंने दृष्टिहीनों की क्षमताओं से जुड़ी इसी मानसिकता में बदलाव लाने के लिए स्कोर फाउंडेशन और प्रोजेक्ट आईवे शुरू किया।
साथ ही उन्होंने एक रेडियो कार्यक्रम ‘ये है रोशनी का कारवां’ शुरू किया, जिसमें ऐसे लोगों की कहानियां प्रसारित की गईं जिन्होंने अपनी नेत्रहीनता के कारण अपने मार्ग में आने वाली हर अड़चन से लोहा लिया और सफलता प्राप्त करते हुए अपने सपनों को पूरा किया।
इस कार्यक्रम में बैंक, आईटी और पर्यटन उद्योग समेत अनेक क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की बात की गई। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य ऐसी जानकारी देना था जो सूचनाप्रद होने के साथ ही प्रेरक भी हो।
जॉर्ज कहते हैं, लोगों ने अपनी समस्याओं और चुनौतियों को लेकर हमें फोन करना शुरू किया, जिसके चलते हमने आईवे हेल्प डेस्क स्थापित किया, जहां काउंसलर्स जो खुद भी नेत्रहीन होते हैं, उनके प्रश्नों के जवाब देते हैं। आज तक हम ऐसी 35,000 से अधिक कॉल्स का जवाब दे चुके हैं।
अपने मिशन के संदेश को प्रसारित करने के लिए टेलीविजन को एक शानदार माध्यम के रूप में प्रयोग करते हुए उन्होंने एक टीवी कार्यक्रम ‘नजर या नजरिया’ का भी निर्माण किया। नसीरुद्दीन शाह ने 13 एपिसोड वाले इस कार्यक्रम के हर एपिसोड की शुरुआत और अंत किया। इसमें समूचे भारत की 32 सफल केस स्टडीज दिखाई गईं।
इस कार्यक्रम ने नेत्रहीनता के साथ जिंदगी की संभावनाओं को उजागर किया और जैसा कि कार्यक्रम का शीर्षक ही बताता है, इसने एक ज्वलंत प्रश्न उठाया, ‘समस्या नजर में है या नजरिये में?’
अपने इसी ध्येय के साथ जॉर्ज इस मानसिकता को बदलने में और ऐसे समावेशी समाज की रचना करने में जुटे हैं, जहां लोग ‘उनमें’ और ‘हममें’ कोई फर्क न करें।