Uncategorized

 आदिवासियों की कीमत पर खनन को बढ़ावा

maxresdefault

महाराष्ट्र ।  हर साल जनवरी की शुरुआत में दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र की जनजातीय समुदाय से आने वाले माडिया गोंड आदिवासी फसलों की कटाई से ठीक पहले जश्न मनाने दो रातों के लिए एक जगह इकट्ठा होते हैं। वे साथ मिलकर अपने देवता ठाकुर देव की आराधना करते हुए खुशी के गीत गाते हैं, नाचते हैं और सुअर व बकरे के मांस का सेवन करते हैं।
इस वर्ष यहां आस-पास के 70 गांवों से 1,000 के करीब आदिवासी यह त्योहार मनाने एकत्रित हुए। जब वे पवित्र अग्नि के चारों ओर बैठे तो उनमें भारत सरकार के सबसे धनी राज्य (सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर) द्वारा इलाके में खनन को अचानक गति देने पर चर्चा भी हुई।
23 दिसंबर, 2016 को इस जगह से कोई 20 किलोमीटर की दूरी पर कथित तौर पर नक्सलवादियों ने खनन के विरोध में 80 ट्रकों और एक जेसीबी मशीन को आग के हवाले कर दिया था। पिछले वर्ष राज्य सरकार ने नक्सलवादियों के डर से सूरजगढ़ के माडिया गोंड गांव में खनन का काम रोक देने वाली कंपनियों को फिर से खनन शुरू करने के लिए कहा। गढ़चिरौली जिले में स्थित सूरजगढ़ गांव महाराष्ट्र की उस बेहद अहम पट्टी में स्थित है, जिसमें राज्य का 60 फीसदी खनिज संचित है। इस इलाके में कोयला, चूना पत्थर, लौह अयस्क और मैग्नीज सहित 17 तरह के खनिजों का 5,75.3 करोड़ टन अनुमानित संचित भंडार है, जो भारत के कुल संचित खनिज भंडार का 22.56 प्रतिशत है।
सामाजिक अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन’ द्वारा जिला खनन कार्यालय से छह महीने पहले ली गई जानकारी के मुताबिक, छह तालुकों की 18,000 एकड़ अतिरिक्त भूमि पर 25 नई खनन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है और आदिवासी इसी से सशंकित हैं।
स्थानीय आदिवासी नेताओं के भाषण में यह भय साफ झलकता है कि इन खनन परियोजनाओं के कारण उन्हें विस्थापन झेलना पड़ सकता है।
देश के अधिकांश आदिवासी इलाकों की ही तरह गढ़चिरौली में भी विकास का नया संघर्ष व्यापक रूप ले रहा है। कोयले से संपन्न इलाकों और मध्य और पूर्वी भारत के जंगलों में संसाधनों को लेकर संघर्ष तीखा होता जा रहा है और एक सर्वविदित घटना बन चुकी है। उल्लेखनीय है कि कोयला देश की कुल ऊर्जा उत्पादन में 60 फीसदी योगदान देता है।
इंडियास्पेंड की सितंबर, 2014 की रिपोर्ट के अनुसार, संसाधनों को लेकर अधिकांश देश के ग्रामीण या सुदूरवर्ती इलाकों में करीब हर महीने होने वाले इस संघर्ष के बारे में कुछ ही ग्रामीण भारतवासी जानते हैं या सोचते हैं। देश के शीर्ष खनन क्षेत्रों का आधा आदिवासी इलाकों में पड़ता है, जैसे गढ़चिरौली। 2011 से 2014 के बीच केंद्रीय खनन मंत्रालय द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में मंजूर किए गए 48 खनन पट्टे आदिवासी इलाकों में पड़ते हैं।
देश के खनिज उत्पादक जिलों में औसतन वन का अनुपात 28 फीसदी है, जो 20.9 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से अधिक है। मई, 2014 में केंद्र में आई राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार ने स्थानीय सरकारी संस्थाओं से राय मशविरा लिए बगैर कानून में बदलाव कर खनन और औद्योगिकीकरण को तेजी से बढ़ावा देना शुरू किया है।
आदिवासियों ने पर्व के दौरान एक-दूसरे को नई खनन परियोजनाओं के संबंध में पर्चियां बांटे और उसकी निंदा की। आंदोलन के संयोजक महेश राउत ने बताया, “हमें बताया गया कि इन परियोजनाओं के लिए नीलामी की जा रही है तथा खनन कंपनियों के साथ समझौता-ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर दिए गए हैं। अब उन्हें सिर्फ पर्यावरण और वन मंत्रालय से मंजूरी लेनी है।”
अदिवासियों ने बताया कि जल, जंगल और जमीन के बीच के नाजुक संबंध तथा स्थानीय निवासियों के जीवन को संरक्षित किए जाने की जरूरत है। आदिवासियों की परंपरा के अनुसार, गांवों की सुरक्षा के लिए नियुक्त विभिन्न गांवों के गायता लोगों ने इस पर्व के दौरान भाषण दिए और जंगल को बचाने पर जोर दिया।
भामरगढ़ पट्टी गोतुल समिति (स्थानीय आदिवासी नेताओं और ग्राम सभा समितियों के अध्यक्षों का पारंपरिक संगठन) से जुड़े राजश्री लेकामे ने कहा, “ऐसा पहली बार हो रहा है कि त्यौहार पर हम अपने जीवन और अधिकारों पर चर्चा कर रहे हैं।”
28 अगस्त, 2015 को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने स्थानीय आदिवासियों से वादा किया है कि एक बार खनन शुरू हो गया तो क्षेत्र में औद्योगिक विकास होगा, जिससे आदिवासी परिवारों के लिए अधिक से अधिक नौकरियां सृजित होंगी और उनकी आय में भी वृद्धि होगी।
लेकिन आदिवासियों का कहना है कि उनके लिए तो वनोपज ही पर्याप्त हैं। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा तेंदू पत्ता और बांस की बिक्री पर सरकारी वर्चस्व खत्म किए जाने के बाद पिछले वर्ष तेंदू पत्ता बेचकर जिले के 1,267 ग्राम सभाओं ने 35 करोड़ रुपये अर्जित किए।
सरकार ने ग्राम सभाओं को वनोपजों को निजी खरीदारों को सीधे-सीधे बेचने का अधिकार दे दिया है। इसका मतलब है कि हर परिवार 15 दिन में 30,000 रुपये से 50,000 रुपये तक कमा सकता है।
महाराष्ट्र ग्राम विकास जन आंदोलन के सदस्य रामदास जतारे ने कहा, “जब आदिवासी परिवारों की आय लाखों में हो ही चुकी है, फिर वे नौकरियों और विकास की बात क्यों कर रहे हैं।”
जतारे ने आरोप लगाया कि सरकार इलाके में यह परियोजनाएं क्षेत्र के विकास के लिए नहीं, बल्कि बड़ी कंपनियों की मदद के लिए कर रही है।

Tags
Show More

Related Articles

Back to top button
Close
Close