पीएलएफ : कविता, स्त्री लेखन और विस्थापन पर गंभीर विमर्श
जयपुर, 28 जनवरी (आईएएनएस)| जयपुर में चल रहे समानांतर साहित्य उत्सव के पहले दिन शनिवार को दूसरे सत्र में ख्यात लेखकों ने शिरकत किया और कविता, स्त्री लेखन और विस्थापन पर गंभीर विमर्श हुआ।
समानांतर साहित्य उत्सव के मुक्ति बोध मंच पर ‘कविता बुरे दिनों में’ रचना पाठ कार्यक्रम के तहत विष्णु खरे, नरेश सक्सेना, कात्यायनी, देवी प्रसाद मिश्र, अर्जुनदेव चारण और लीलाधर मंडलोई ने वर्तमान दौर की कविता पर विस्तार से चर्चा की। सत्र का शुभारंभ कात्यायनी की कविता पाठ से हुआ।
वरिष्ठ कवि देवप्रकाश मिश्र ने कहा कि दलित कविता सीधे तौर पर प्रतिरोध की कविता होती है। ब्रााह्मणवाद और मुस्लिम कट्टरवाद के प्रतिरोध में भी कविता लिखी जाती है।
उन्होंने कहा कि हिंदी के प्रतिरोध की कविता बहुत से खानों में विभाजित है। मुक्तिबोध की कविताओं में आदिवासी प्रतिरोध और मध्य वर्ग की बात स्पष्ट जान पड़ती है। हिंदी कविता में जाति, वर्ण, संप्रदाय का विरोध मुखर होकर हमारे सामने आता है। हिंदी कविता प्रतिरोध का स्वर ही है। मध्य वर्ग का दलित जो पतन की राह पर है उसका कविता में प्रतिरोध मिलता है। हिंदी की सबसे बड़ी कविता मुक्ति बोध के पास है। आज मध्यमवर्ग की समस्याओं और सामाजिक तनाव झेल रहे समाज के प्रतिरोध की कविताओं की अधिक से अधिक आवश्यकता है।
विष्णु खरे ने सवाल उठाते हुए कहा कि प्रतिरोध किस लिए होना चाहिए? क्या अपने लिए, पाठक के लिए, कविता के लिए? प्रतिरोध का समाज में क्या परिणाम सामने आ रहा है यह देखने की बात है। उनकी मान्यता थी कि हिंदी की कविता की प्रतिरोध समाज में पहुंचा ही नहीं है। राजनीति में हिस्सा लेकर भी प्रतिरोध प्रदर्शित किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि महिला कविताओं में प्रतिरोध प्रमुखता से दिखाई देता है। आज लिट फेस्ट कल्चर के खिलाफ प्रतिरोध दिखाई पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी कविता सबसे खराब कविता है जबकि भारतीय कविता की मांग बराबर बनी रही है। भारतीय भाषाओं की भी मांग है। पाठक अन्य भाषाओं की कविताओं को भी पढ़े और स्वयं प्रतिरोध की ताकत पैदा करें। समाज में बदलाव ऐसे ही आएगा।
उन्होंने कहा कि प्रतिरोध के लिए राजनीति बदलो। संपूर्ण दुनिया को मार्क्सवाद से हम बदल सकते हैं। हिंदू समाज पतन की ओर अग्रसर है यह चिंतनीय है। प्रतिरोध की आवश्यकता परिवार में भी है। बिना प्रतिरोध के समाज को नहीं बदला जा सकता। कविता में प्रतिरोध से पहले स्वयं में प्रतिरोध लाने की जरूरत है।
प्रतिष्ठित कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि प्रतिरोध की कविता बहुत दूर तक जाती है। प्रतिरोध की कविता एक गुलाब के फूल से भी प्रकट की जा सकती है। प्रतिरोध की कविता आपको मनुष्य बना देती है। धूप में मुठ्ठी बांधों तो कुछ नहीं मिलता किंतु धूप में मुट्ठी खोलो तो धूप निकलती है। देखना इस बात से निर्भर करता है कि किस क्षण आप क्या देख रहे हैं। देखना भी एक बड़ी क्रिया है।
स्त्री लेखन, आयतन और व्याप्ति
‘स्त्री लेखन और आयतन व्याप्ति’ सत्र प्रभा खेतान की स्मृति को समर्पित किया गया। इस सत्र में मैत्रयी पुष्पा, विपिन चौधरी, कात्यायनी, नूर जहीर और रति सक्सेना की सहभागिता रही।
रति सक्सेना ने कहा कि स्त्री लेखन में प्रासंगिक लिखा गया है और इसके लिए बहुत मेहनत, परिश्रम लगन चाहिए। देश में उच्च कोटि का महिला लेखन हो रहा है। मनीषा कुलश्रेष्ठ काफी अच्छा लिख रहीा है। बाकी लोगों का ध्यान पुरस्कारों पर है। उनकी यह चिंता है कि कैसे पुरुष पुरस्कारों में बाजी मार लेते हैं।
कात्यायनी ने कहा कि वर्तमान लेखन में स्त्री मजबूती से उभर रही है। उन्होंने कहा कि मैं यह नहीं समझ पा रही कि क्या साहित्य में स्त्री स्वर अलग होता है और पुरुष स्वर अलग। नूर जहीर ने सवाल उठाते हुए कहा कि सारे पैगम्बर मर्द ही क्यों होते हैं?
मैत्रयी पुष्पा ने कहा कि हमने दिल की बात लिखी है और अनुभव से लिखी है। हम जो बोलती हैं उसी भाषा को आत्मसात करती है। परिव्याप्ति और आयतन को यदि नापना है तो अपनी भाषा में लिखिए एवं विद्वत्ता मत झाड़िए। दूसरों की बात निकलवाने से पहले खुद का कलेजा चाक कीजिए।
विस्थापन का दर्द
विस्थापन के दर्द पर आयोजित सत्र में हिंदी और सिंधी के वरिष्ठ साहित्यकार भगवान अटलानी ने अपनी कहानी ‘क्या करें बाबा’ का पाठ किया। बाद में इस पर चर्चा हुई जिसमें वरिष्ठ सिंधी साहित्यकार डॉ. कमला गोकलानी, वरिष्ठ सिंधी कहानीकार एवं नाटककार लक्ष्मण भम्भानी, आकाशवानी के सिंधी विभाग के प्रोडजूसर सीपी आडवाणी, रोमा चंदवानी ने भाग लिया। कार्यक्रम का संचालन पत्रकार गजेंद्र रिजवानी ने किया।
कहानी पर चर्चा में भाग लेते हुए लक्ष्मण भम्भानी ने कहा कि सिंधी समाज विभाजन से उत्पन्न हुए विस्थापन का दर्द तो भुला चुका है लेकिन ऐसी बातें हैं जो अभी भी हमें दर्द देती है। कमला गोकलानी ने कहा कि सिंधी समाज आज अपने बूते पर विस्थापित से स्थापित हो चुका है। इस समाज को शरणार्थी का कलंक दिया गया जिसे धोकर आज की पीढ़ी ने इसे परमार्थी बना दिया है।
सीपी आडवाणी ने कहानी की जिक्र करते हुए कहा कि यह हमें विभाजन से इतर व्यापक दृष्टि देती है। रोमा चांदवानी ने कहानी को लेखक के कथ्य और उसके शिल्प की सफलता बताते हुए सराहना की।