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मुक्तिकामी धर्म के प्रवर्तक थे विवेकानंद

नई दिल्ली, 12 जनवरी (आईएएनएस)| हिंदुत्व के प्रचार की जो बयार इन दिनों देश में बहाई जा रही है और इसके लिए जयंती के बहाने स्वामी विवेकानंद के नाम का इस्तेमाल किया जा रहा है, यह वह ‘हिंदुत्व’ नहीं है, जिसकी व्याख्या अद्वैत वेदांत दर्शन के महान प्रचारक ने की थी। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके अपने ही देश में धर्मो के बीच नफरत की दीवारें खड़ी कर हिंदुत्व को राजनीति का जरिया बना दिया जाएगा।

स्वामी विवेकानंद की जयंती शुक्रवार को देशभर में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है। इसलिए आज की युवापीढ़ी के लिए यह समझना जरूरी है कि स्वामी ने जिस ‘हिंदुत्व’ का दुनिया में प्रचार किया था, असल में वह क्या है।

नरेंद्रनाथ दत्त यानी स्वामी विवेकानंद ने दुनिया को बताया था कि मानव-मानव में फर्क नहीं है। कोई धर्म बड़ा या छोटा नहीं होता, सभी धर्मो का ध्येय मानव कल्याण है। मानव की सेवा ही ईश्वर की वास्तविक पूजा है। उन्होंने वेदांत का प्रायोगिक रूप संसार के सामने लाया था। वह आध्यात्मिक गुरु के साथ-साथ राष्ट्रवाद के उन्नायकों में से एक थे।

विवेकानंद ने समय के नब्ज को पहचान लिया था। इसलिए औपनिवेशिक दासता के दौर में जब भारत और भारतीय लोगों को पाश्चात्य जगत में हीन-भाव से देखा जाता था, उन्होंने अमेरिका में भारतीय जनमानस व संस्कृति की विशेषताओं का गुणगान कर दुनियाभर के धर्मगुरुओं को यह मानने को बाध्य कर दिया कि भारतीय उनसे श्रेष्ठ हैं। दुनिया ने उनकेमानवतावादी दृष्टिकोण के कारण ही भारतीयों को श्रेष्ठ मानने के लिए बाध्य हुआ था।

वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश्वर मिश्र कहते हैं कि जब भारतीय समाज में अनेक कुरीतियों व भ्रांतियां व्याप्त थीं, तब विवेकानंद के रूप में एक ऐसा चेहरा उभरकर आया, जो नए तरीके से सोचता था। उनके लिए धर्म की अलग परिभाषा थी। वह सामाजिक कटुता से लोगों को मुक्त कराना चाहते थे।

मनोविज्ञानी गिरीश्वर मिश्र ने आईएएनएस से फोन पर बातचीत में कहा, विवेकानंद न सिर्फ आध्यात्मिक गुरु व नेता थे, बल्कि वह एक महान राष्ट्रवादी थे। अपनी बौद्धिक परिपक्वता का उपयोग कर उन्होंने शिकागो के सर्वधर्म संसद में भारत की श्रेष्ठता स्थापित की। उन्होंने साम्राज्यवाद का विरोध किया और मानवतादी दृष्टिकोण अपनाने की वकालत की।

उन्होंने कहा कि विवेकानंद ऐसे समाज के निर्माण के पक्षधर थे, जहां लोग ‘सर्वभूतहितोरता:’ यानी सभी प्राणियों के कल्याण के कार्य में संलग्न रहने वाले हों। यही उनकी सबसे बड़ी चिंता भी थी, जिसके लिए उन्होंने रामकृष्ण मिशन व अन्य संस्थाओं व संगठनों की स्थापना की।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर मणींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं, विवेकानंद ने 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म संसद में हिंदूधर्म की अच्छाइयों का बखान किया था और धर्म संसद मे उपस्थित लोगों को भाइयों और बहनों कहकर संबोधित किया था। वह हिंदू अध्यात्म दर्शन के पैरोकार जरूर थे, लेकिन वह सभी धर्मो के प्रति समान भाव रखते थे। उन्होंने धार्मिक कट्टरता व हठधर्मिता की आलोचना की थी और बताया था कि वह सभी धर्मो के प्रति समान आदर रखते हैं।

उन्होंने कहा कि विवेकानंद गरीबों व आमजनों की बात करते थे। वह शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करते थे। उनका धर्म मानवतावादी था और वह मुक्तिकामी धर्म के प्रवर्तक थे।

ठाकुर ने कहा, 20वीं सदी के उत्तरार्ध में लैटिन अमेरिका में जो लिबरेशन थियोलॉजी अर्थात मुक्तिकामी धर्म नाम से जो धार्मिक आंदोलन शुरू हुआ, उसके प्रवर्तक विवेकानंद ही थे।

दरअसल, लिबरेशन थियोलॉजी में गरीबों व पीड़ितों को राजनीति व नागरिक कार्यो में शामिल कर उन्हें संस्थागत स्थापित धर्म से जोड़ने की मांग की जाती है। उन्होंने कहा कि विवेकानंद ने कहा था कि गीता पढ़ने से अच्छा है कि फुटबॉल खेलो। जाहिर है कि धार्मिक चिंतन से ज्यादा वह शारीरिक सौष्ठव को महत्व देते थे।

विवेकानंद युवाओं के प्रेरणास्रोत रहे हैं, इसलिए उनके जन्मदिन को युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह शिक्षा, दर्शन, जनसेवा हर क्षेत्र में सदैव अव्वल रहे थे। इसीलिए रोम्या रोलां ने विवेकानंद के बारे में कहा था- ‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहां भी गए सर्वप्रथम ही रहे।’

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