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मैंने कैंसर अनुभव पर लिखी है स्क्रिप्ट : अनुराग बसु

नई दिल्ली, 16 दिसंबर (आईएएनएस)| फिल्म निर्माता और कैंसर की जंग जीत चुके अनुराग बसु ने कहा कि वह कभी भी अपने ‘दुख’ को दिखाना नहीं चाहते और यही कारण है कि वह कैंसर पर फिल्म निर्माण से दूर रहे। हालांकि वह अब ऐसी स्क्रिप्ट के साथ तैयार हैं जो या तो किताब या फिल्म के जरिए रिलीज हो सकती है।

बसु ने एक इमेल साक्षात्कार में कैंसर पर फिल्म बनाए जाने के बारे में पूछे जाने पर आईएएनएस को बताया, हां, मैं ऐसा करूंगा।

बसु (43) ने कहा, पहले मैं हमेशा कैंसर पर फिल्म बनाने से बचता था। इसका पहला कारण यह था कि मुझे अपना अनुभव बयां करना होता और दूसरा कारण, मैं हमेशा अपने साथ घटित दुखद आपबीती को कमर्शियल फिल्मों में दिखाने में झिझक महसूस करता था। यह विषय मेरे काफी करीब है और सभी फिल्मों के बाद मैं इसके बारे में सोचता हूं। एक स्क्रिप्ट है, जिसे मैंने अपने कैंसर और उस दौरान अस्पताल में रहने पर लिखा है और एक दिन शायद ऐसा आएगा, जब मेरी यह स्क्रिप्ट या तो किताब या फिल्म का रूप ले लेगी।

प्रसिद्ध निर्देशक बसु वर्ष 2004 में ब्लड कैंसर के एक प्रकार प्राणघातक ‘प्रोमाइलोसाइटिक ल्यूकेमिया’ से जूझ रहे थे और डॉक्टरों ने उनकी जिंदगी केवल दो माह बताई थी। लेकिन वह अपनी फिल्मों की तरह कैंसर से भी लड़े और विजयी हुए।

मौत को इतने करीब से देखने के बाद उनकी प्राथमिकता पूरी तरह बदल गई।

तानी बसु से विवाह करने वाले और दो बच्चियों- इशाना व आहना के पिता बसु ने कहा, हां, थोड़ी बहुत मेरी प्राथमिकता बदल गई और इसका असर मेरी फिल्मों व कहानियों पर भी पड़ा। कैंसर से अपनी लड़ाई के बाद अब मैं ज्यादा जिम्मेदार पुत्र, पति और पिता बन गया हूं।

‘मर्डर’, ‘गैंगस्टर’, ‘लाइफ इन ए मेट्रो’, ‘काइट्स’, ‘बर्फी’ व ‘जग्गा जासूस’ जैसी फिल्में बनाने वाले निर्देशक ने कहा कि एक फिल्म निर्माता के तौर पर, फिल्म के रूप में बड़े पर्दे पर जागरूकता फैलाने के लिए कुछ मुद्दों को लाना होता है।

उन्होंने कहा, यह बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन मनोरंजन के डोज के साथ लोगों को जागरूक करना बहुत मुश्किल है। लोग मनोरंजन के लिए फिल्में देखते हैं और कोई उन्हें इसके लिए उपदेश नहीं दे सकता। वे दिन चले गए। मैंने ऐसा ‘बर्फी’ और ‘जग्गा जासूस’ के साथ करने की कोशिश की।

एक कैंसर सर्वाइवर होने के नाते बसु टाटा मेमोरियल सेंटर में हाल ही में कैंसर से पीड़ित 40 बच्चों से मिले थे। इस समारोह में माउंट लिटेरा स्कूल इंटरनेशनल की सलाहकार नव्यता गोयनका भी मौजूद थीं।

बसु ने वहां अपनी प्रेरक कहानी बच्चों और स्कूल के छात्रों के साथ साझा की और कहा कि यह काफी भावुक क्षण था।

उन्होंने कहा, यह काफी भावुक क्षण था। मैंने टाटा मेमोरियल में बच्चों से बातचीत की और उनमें मैंने अपने आप को देखा। जो लड़ाई वे अभी लड़ रहे हैं, वह मुझे अपने पुराने दिनों की याद दिला गया। कैंसर से पीड़ित बच्चों के बीच खुशियां फैलाने के उनके इरादों की अवश्य ही सराहना करनी चाहिए।

जब उनसे यह पूछा गया कि वह कैंसर पीड़ितों को जिंदगी का कुछ सबक देना चाहेंगे, पर उन्होंने कहा, कैंसर से लड़ने का पहली सीढ़ी खुश रहना है। जब मैं इस बीमारी से लड़ रहा था, तो मैंने ऐसा महूसस किया था कि इस बीमार का 50 प्रतिशत इलाज चिकित्सा से संभव है और बाकी 50 प्रतिशत बीमार का इलाज हम इच्छा शक्ति से कर सकते हैं।

बसु ने कहा, इस तरह की बीमारियों से लड़ने के लिए पहले छोटे लक्ष्य तय करने चाहिए। उदाहरण के लिए, जब मैं टाटा मेमोरियल में भर्ती हुआ था, तो मैं अपने इलाज के शुरुआती दिनों में चल पाने में असमर्थ था। मैंने रूम में कुर्सी के सहारे चलने का छोटा लक्ष्य तय किया और धीरे-धीरे मैं पूरे रूम में चलने लगा। इस तरह के लक्ष्य ने मुझे और मेरे आत्मविश्वास को आगे बढ़ाया।

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