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असाधारण अभिनय से सबके प्रेरणास्रोत बने दिलीप कुमार (11 दिसम्बर-जन्मदिन विशेष)

नई दिल्ली, 11 दिसम्बर (आईएएनएस)| ब्रिटिश भारत में फिल्मी दुनिया में आगाज करने वाले अभिनेता दिलीप कुमार ने भारतीय सिनेमा की कई क्लासिक फिल्मों में काम किया है। आठ दशक से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी वह अपने प्रशंसकों के दिलों में बसे हुए हैं, जिनके साथ वह सोशल मीडिया के जरिए संपर्क में बने हुए हैं। अभिनेता न सिर्फबॉलीवुड के सबसे उम्रदराज कलाकार हैं बल्कि अपने आप में एक भारतीय संस्थान भी हैं।

‘ट्रेजेडी किंग’ कहे जाने वाले दिलीप कुमार का ही कमाल था कि उन्होंने कॉमेडी में भी वैसे ही जौहर दिखाए थे। भावों की हर गहराई के साथ वह राजकुमार भी उतनी ही सहजता से बने जितनी सहजता से किसान की भूमिका निभाई। सोमवार को 95 साल के हो गए अभिनेता ने बतौर कलाकार और एक शख्सियत, दोनों के रूप में खुद को बार-बार गढ़ा है।

यादगार फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ के एक दृश्य में शहजादा सलीम के किरदार के रूप में उन्होंने कहा था, तकदीरें बदल जाती हैं, जमाना बदल जाता है, मुल्कों की तारीख बदल जाती है, शहंशाह बदल जाते हैं, मगर इस बदलती हुई दुनिया में मोहब्बत जिस इंसान का दामन थाम लेती है, वही इंसान नहीं बदलता। और, ये बोल शायद दिलीप कुमार के लंबे प्रेरणामयी जीवन को बखूबी बयां करते हों, लेकिन उनके अभिनय को नहीं।

फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ (1960) में एक कठोर, अड़ियल पिता पृथ्वीराज कपूर (अकबर की भूमिका में) के सामने विद्रोही बेटे का किरदार निभाने के दो दशक बाद ‘शक्ति’ (1980) में उन्होंने विद्रोही बेटे (अमिताभ बच्चन) के पिता के रूप में दमदार अभिनय किया था, लेकिन जिसमें पृथ्वीराज कपूर की शहंशाहियत नहीं बल्कि एक ईमानदार मध्यमवर्गीय पिता का दर्द छलका था।

मोहम्मद यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार की अभिनय क्षमता ऐसी ही थी।

एक पठान लड़के को उस समय बॉलीवुड में राज करने वाली खूबसूरत अभिनेत्री देविका रानी ने फिल्म ‘ज्वार भाटा’ (1944) से फिल्मी दुनिया में कदम रखने का मौका दिया। वह राजकपूर और देव आनंद के साथ बॉलीवुड की पहली मशहूर तिकड़ी का हिस्सा बने और बतौर अभिनेता उन्हें सभी में सर्वश्रेष्ठ माना गया।

अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक, सभी सुपरस्टार उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं।

उनकी पत्नी सायरा बानो ने दिलीपी कुमार के संस्मरण पर आधारित किताब ‘दिलीप कुमार : द सब्सटेंस एंड द शैडो’ की भूमिका में कहा, उन्होंने अपने दम पर अभिनय को तराशा और इसे एक उत्कृष्ट कला का स्वरूप दे दिया।

हालांकि, दिलीप की फिल्मों में आने की कोई योजना नहीं थी, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनकी दादी को एक फकीर के कथन पर पूरा विश्वास था कि वह एक दिन खूब नाम और शोहरत हासिल करेंगे। फिर उनके पिता गुलाम सरवर ने 1930 के अंतिम दशक में बॉम्बे (मुंबई) में अपना व्यापार जमाने के बारे में सोचा और इस तरह से यूसुफ खान से दिलीप कुमार बनने का सफर शुरू हुआ।

दिलीप कुमार ने नए स्वतंत्र भारत और इसकी विविधता व उज्जवल भविष्य को ‘नया दौर’ (1957) जैसी फिल्मों में बखूबी दर्शाया, जिसका जिक्र लॉर्ड मेघनाद देसाई ने अपनी पुस्तक ‘नेहरूज हीरो : दिलीप कुमार इन द लाइफ आफ इंडिया’ में किया है।

सायरो बानो ने एक बार बताया था कि अगर उनके पति कुरान की जानकारी रखते हैं और बहुत खूबसूरत अजान दे सकते हैं, तो भगवद गीता और बाइबिल के बारे में भी वैसी ही जानकारी रखते हैं। वह ईद और दिवाली समान उत्साह से मनाते हैं।

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