जीवनशैली

परिस्थितियों से बच्चों को लड़ना सिखाए अब पेरेंट्स घबराना नहीं, जाने क्यों?

कहते है ‘परिस्थितियां कभी अनुकूल नहीं होती उन्हे अनुकूल बनाना पड़ता है ‘ठीक वैसे ही पेरेंट्स को यह बात अब समझनी होगी कि बच्चे खुद समझदार नहीं बनते उन्हे समझदार बनाना पड़ता है। हाल ही हुई एक रिसर्च में सामने आया है कि मिडिल क्लास पैरंट्स अपने बच्चों के भविष्य के लिए खुद ही खतरा पैदा कर रहे हैं।

दरअसल वह अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के फेर में उनकी हर जरूरत तो पूरा कर ही रहे हैं, साथ ही उन्हें परिस्थितियों को स्वीकारने की आदत नहीं सिखा रहे हैं। ऐसे में बच्चे जल्दी निराशा की गर्त में चले जाते हैं।

चाइल्ड डिवेलपमेंट स्पेशलिस्ट और रिसर्च साइकॉलजिस्ट डॉक्टर अमंदा गुमेर के अनुसार, ‘क्लासरूम में बच्चे का जो खराब व्यवहार देखने को मिलता है वह व्यवहार बच्चे ने अपने पैरंट्स से ही सीखा होता है। गुस्सैल और किसी की बात न सुनने वाले बच्चे दरअसल ‘हेलीकॉप्टर पैरंट्स’ की संतान होते हैं। ऐसे पैरंट्स वो लोग होते हैं, जो अपने बच्चे की हर जिद और इच्छा को पूरा करते हैं और उसके सारे निर्णय खुद लेते हैं। इस तरह ये अपने बच्चे के अंदर ‘लिटिल एम्पेरर सिंड्रोम’ विकसित कर रहे होते हैं।

प्राइमरी स्कूल टीचर्स के साथ किए गए अपने अध्ययन के आधार पर अमंदा का कहना है कि मध्यमवर्गीय परिवारों के माता-पिता का व्यवहार उनके बच्चों की तुलना में बहुत चौंकाने वाला था।

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वे माता-पिता अपने बच्चे के भविष्य और उसकी असफलताओं को लेकर कहीं ज्यादा चिंतित दिखे। या कहें कि उनमें अपने बच्चे के भविष्य को लेकर एक सनक जैसी दिखी। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं था कि उनका ऐसा बर्ताव उनके बच्चे को मानसिक तौर पर कमजोर बना रहा है। जिस कारण उन्हें भविष्य में फैसले लेने में दिक्कत होगी।

पैरंट्स के इस रवैये के कारण बच्चे क्लास में भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि वह नंवर-1 नहीं हैं। शोध के बाद माता-पिता को सुझाव दिया गया कि वह इस रवैये में बदलाव लाएं। क्योंकि बच्चे के ऊपर जरूरत से ज्यादा कंट्रोल और हर समय नंबर-1 बनने के लिए उस पर दवाब डालना आपके बच्चे को मानसिक रूप से बीमार कर सकता है।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन द्वारा साल 2015 में की गई स्टडी के अनुसार, ‘जिन बच्चों के माता-पिता उनकी प्राइवेसी में बहुत दखल देते हैं या अपने बच्चे के सभी फैसले वह खुद करते हैं, ऐसे बच्चे अपनी किशोरावस्था के साथ ही जीवन के 30वें, 40वें दशक तक और कई बार इससे ज्यादा उम्र तक नाखुश रहते हैं।’ यह शोध 5000 बच्चों पर उनके जन्म के समय से ही किया गया था।

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