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‘लाल सलाम’ की सियासी जमीन पर ‘जय भीम’ का कब्जा 

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बांदा | उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड की सियासी जमीन पर तीन दशक तक ‘लाल सलाम’ यानी वामपंथ का डंका बजता रहा है, इस दौरान यहां बारह विधायक और दो सांसद चुने गए। लेकिन, नब्बे के दशक के बाद बसपा के ‘जय भीम’ ने वामपंथियों का यह मजबूत किला ढहा दिया। दलित बहुल बुंदेलखंड में वामपंथ यानी कम्युनिस्ट पार्टी ‘लाल सलाम’ के नारे के साथ साठ के दशक में वजूद में आई। उस समय निवादा गांव के दलित नेता दुर्जन भाई की अगुआई में 12 जुलाई 1962 में ‘धन और धरती बंट कर रहेगी’ का नारा बुलंद करते हुए हजारों की तादाद में दलित और पिछड़े जिला कचहरी में पहला प्रदर्शन कर सभी राजनीतिक दलों की चूलें हिला दी थी, इसी प्रदर्शन में तत्कालीन डीएम टी. ब्लाह और तत्कालीन एसपी आगा खां द्वारा गोली चलवाए जाने के बाद यह जमीन वामपंथियों का सियासी गढ़ जैसा बन गया, इस गोलीकांड में अनगिनत दलित मारे गए थे।
उल्लेखनीय है कि 1962 के विधानसभा चुनाव में कोई वामपंथी चुनाव तो नहीं जीत सका, अलबत्ता कई सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे या तीसरे स्थान पर रहे। 1967 के चुनाव में पहली बार कर्वी सीट से सीपीआई के रामसजीवन विधायक बने, इसके बाद 1974 के चुनाव में कर्वी, बबेरू, और नरैनी सीट में वामपंथियों की जीत हुई। रामसजीवन कर्वी सीट से 1967 के अलावा 1969, 1974, 1977, 1980 और 1985 के चुनाव में भी जीत हासिल की। इधर, 1974 में नरैनी सीट से भाकपा के चंद्रभान आजाद चुने गए और 1977, 1985 और 1989 में डॉ. सुरेंद्रपाल वर्मा इसी पार्टी से विधायक बने। बबेरू सीट से देवकुमार यादव 1974 और 1977 के चुनाव में जीते। इसी बीच पतवन गांव के किसान जागेश्वर यादव एक बार सांसद हुए और एक बार रामसजीवन बांदा लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए।
नब्बे के दशक के बाद वामपंथ विचारधारा की राजनीति पनप नहीं पाई और उसकी सियासी जमीन पर से ‘लाल सलाम’ को बेदखल कर बसपा के ‘जय भीम’ ने कब्जा कर लिया। अब वामपंथियों को अपने पुराने गढ़ में जहां उम्मीदवार ढूंढ़े नहीं मिल रहे, वहीं यदा-कदा मैदान में उतारे गए उम्मीदवारों की जमानत तक नहीं बच पाई। हालांकि भाकपा के जिला सचिव का. रामचंद्र सरस ने कहा, “इस बार विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा कई उम्मीदवार मैदान में उतार रहा है। बांदा और चित्रकूट जिले की छह सीटों के उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी गई है।” उन्होंने स्वीकार किया कि बसपा की ओर दलित मतों के ध्रुवीकरण से वामपंथी आंदोलन कमजोर हुआ है, अब दलित मतदाता धीरे-धीरे अपने पुराने राजनीतिक घर में वापसी कर रहा है।

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