खाली खेत, सूनसान घर, गिनती भर लोग और भूतिया होते जा रहे उत्तराखंड के गाँव
खाली होती जा रहीं उत्तराखंड की पहाड़ियां
उत्तर प्रदेश से वर्ष 2000 में अलग होकर उत्तराखंड एक नया राज्य बना, लेकिन पहाड़ों पर तेज़ी से खाली होते गाँवों ने उत्तराखंड की पहचान को खतरे में ला खड़ा किया है। हालत यह है कि पिछले चार वर्षों में मैदानी क्षेत्रों में लोगों के पलायन के कारण उत्तराखंड के हज़ार से ज़्यादा गाँव खाली हो चुके हैं।
उत्तराखंड के अल्मोड़ा क्षेत्र के सुपई गाँव में वर्ष 1990 में 20 से ज़्यादा परिवार रहा करते थे। लेकिन आज इस गाँव में मात्र एक परिवार बचा है। सुपई गाँव के ही चंद्रशेखर तिवारी ( 70 वर्ष) अब अपने गाँव में नहीं रहते हैं। उनका परिवार हल्द्वानी पलायन कर गया है। चंद्र शेखर बताते हैं,” मैं अभी कुछ दिनों पहले अपने गाँव गया था। वहां पर अब केवल पंडित जी का परिवार ही बचा हुआ है, क्योंकि उनका लड़का गाँव के पास के ही एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाता है। गाँव पूरी तरह से सूनसान हो गया है।”
अल्मोड़ा में अपना गाँव छोड़कर दूसरी जगह बस जाने वाले अकेले चंद्रशेखन तिवारी ही नहीं हैं, बल्कि पूरे उत्तराखंड में पिछले 16 वर्षों में करीब 32 लाख लोग अपना मूल निवास छोड़कर दूसरी जगहों पर रह रहे हैं। डायरेक्ट्रेट ऑफ इकॉनॉमिक्स एंड स्टैटिक्स उत्तराखंड की रिपोर्ट 2013 -14 के अनुसार उत्तराखंड में कुल 16,793 गाँव हैं, जिसमें से 1,048 गाँव अब भूतिया गाँवों में बदल चुके हैं, वहीं 400 गाँवों में दस से कम की आबादी रह गई है। क्योंकि यहां रहने वाले लोग पलायन कर गए हैं।
” उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद प्रदेश के मैदानी इलाकों में कई विश्वविद्यालय बनाए गए और अच्छे उद्योग भी लगाए गए, लेकिन पहाड़ों पर डॉक्टर, शिक्षकों , सरकारी कर्मचारियों को व्यापक तौर पर नहीं पहुंचाया जा पाया है। पहाड़ों पर बनाए गए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टर जाना नहीं चाहते इसलिए ज़्यादातर पीएचसी पर फार्मेसिस्ट ही डॉक्टरों का काम करते हैं। सुविधाएं कम होती जा रही हैं इसलिए लोग भी मैदानी क्षेत्रों का रुख कर रहे हैं।” चंद्र शेखर तिवारी आगे बताते हैं।
भारतीय जनगणना वर्ष 2011 यह बताती है कि देश में वर्ष 2011 तक 45.36 करोड़ लोगों ने काम की तलाश में अपनी जगह से पलायन किया है। इससे में 68 प्रतिशत ऐसे लोग शामिल हैं , जिन्होंने काम के लिए गाँवों से शहर की ओर पलायन किया।
जोशीमठ तहसील में तहसीलदार चंद्रशेखर वशिष्ठ यह बताते हैं,” पहाड़ों पर होने वाला पलायन कोई नई बात नहीं है। ज़्यादा ऊंचाई पर बसे गाँवों में बर्फबारी के समय लोग दूसरे गाँवों में पलायन करते हैं और मौसम सही होने पर वापस अपने गाँव चले जाते हैं। पलायन करने वालों में सबसे अधिक संख्या युवा वर्ग की है क्योंकि रोजगार की तलाश में अधिकतर युवा मैदानी क्षेत्रों के विकसित इलाकों में चले जाते हैं। इससे गाँवों की आबादी घट रही है।”
उत्तराखंड निदेशालय की सांख्यिकीय डायरी 2013 के मुताबिक वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद यहां सबसे ज्यादा पलायन अल्मोड़ा और पौड़ी जिलों में हुआ है। अल्मोड़ा जिले में खाली पड़े घरों की संख्या सबसे अधिक 36,401 और पौड़ी जिले में 35,654 है। टिहरी में 33,689 और पिथौरागढ़ में 22,936 घर, देहरादून में 20,625, चमोली में 18,535 , हरिद्वार में 18,437, नैनीताल में 15,075, उत्तरकाशी में 11,710, ऊधमसिंह नगर में 11,438, चंपावत में 11,281, रुद्रप्रयाग में 10,971, बागेश्वर में 10,073 घरों में ताले लटके हुए हैं। देख-रेख के अभाव में ये घर खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं।
” भले ही पलायन बढ़ रहा हो, लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी गाँवों में अभी भी अापको वो बुज़ुर्ग रहते हुए मिल जाएंगे, जो अपना गाँव छोड़ना नहीं चाहते हैं। लेकिन जब नौकरी करने गए उनके बच्चे दूसरी जगह जाकर आर्थिक रूप से सबल हो जाते हैं, तो वो अपने मां-बाप को भी अपने पास बुला लेते हैं। इससे बुज़ुर्गों को न चाहते हुए भी अपनी चौखट छोड़नी पड़ती है।” अल्मोड़ा के सुपई गाँव के चंद्रशेखर तिवारी आगे बताते हैं।
खाली होते जा रहे भुतहा गाँवों में पलायन रोकने के लिए उठाए जा रहे कदम
उत्तराखंड के गाँवों में हो रहे पलायन को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में उप जिलाधिकारी, जोशीमठ योगेंद्र सिंह ने बताया, “यह बात सच है कि उत्तराखंड के गाँवों में तेज़ी से लोगों का पलायन हो रहा है। पलायन कर रहे लोगों में अधिकतर संख्या युवावर्ग की है, क्योंकि रोज़गार की तलाश में युवा देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, हल्द्वानी और रूद्रपुर जैसे क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं।” उन्होंने आगे बताया कि गाँवों में हो रहे पलायन को रोकने के लिए सरकार ने युवाओं के लिए कई रोजगार कार्यक्रम शुरू किए हैं। इसके अलावा पहाड़ों पर आधुनिक आईटीआई केंद्र भी बनाए जा रहे हैं, इससे पलायन में कमी आई है।
उत्तराखंड में खाली होते गाँवों में पलायन को रोकने के लिए कई गैर- सरकारी संस्थाएं भी सामने आई हैं। उत्तराखंड में दीपक रामोला और हंस फाउंडेशन जैसी निजी संस्थाओं ने साथ मिलकर अपने प्रोजेक्ट फ्यूल के अंतर्गत ‘ घोस्ट विलेज फेस्टिवल ‘ शुरू किया है। इस फेस्टिवल में बड़ी संख्या में लोग खाली हो चुके गाँवों में दो से तीन दिन रुक कर मौज-मस्ती करते हैं, गीत-संगीत के साथ साथ डांस और हो-हल्ला भी होता है। घोस्ट विलेज फेस्टिवल में गाँव के उन लोगों को भी बुलाया जाता है, जो उन गाँवों को छोड़कर कहीं और बस चुके हैं। मौज मस्ती के साथ-साथ खाली पड़े घरों पर सुंदर पेंटिंग भी बनाई जाती हैं।