संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा से खेल क्यों?
देश की सर्वोच्च अदालत इन दिनों सुर्खियों में है। पिछले दिनों चार न्यायाधीशों ने मीडिया में अपनी बात क्या रखी, तो भूचाल आ गया। संवैधानिक संस्थाओं की नींव हिलने लगी।
राजनीति के बयानवीर खुल कर न्यायाधीशों के समर्थन और सरकार के विरोध में खड़े हो गए हैं। पूरा देश विचारधाराओं के दो सिरों दक्षिणपंथ और वामपंथ में विभाजित हो गया। सोशल मीडिया पर शीतयुद्ध छिड़ गया है।
सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। राजनेता और दूसरी हस्तियां ट्वीट पर ट्वीट कर रही हैं। पूरे देश में यह मसला बहस का विषय बन गया है। टीवी पर डिबेट की बाढ़ आ गई है। ऐसा लगने लगा है कि जैसे देश में कोई दूसरी समस्या ही नहीं है। इस विषय पर शोर मचाने की क्या जरूरत है। विषय अदालत से जुड़ा है, जिसका निर्णय वही करेगी। अदालत एक संवैधानिक संस्था है, उस पर राजनीतिक विरोध और सरकार को घेरने से क्या होगा।
सर्वोच्च अदालत के चार जज जस्टिस जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ ने शुक्रवार को अपने आवास पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में देश के सामने जो बात रखी, गौर उस पर होना चाहिए था, लेकिन बहस की दिशा राजनीति की तरफ मुड़ गई।
जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने कहा, हम चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो इस देश में या किसी भी देश में लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है। चूंकि हमारे सभी प्रयास बेकार हो गए, यहां तक कि आज सुबह भी हम चारों जाकर मुख्य न्यायाधीश से मिले, उनसे आग्रह किया। लेकिन हम अपनी बात से उन्हें सहमत नहीं करा सके। इसके बाद हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचा कि हम देश को बताएं कि न्यायपालिका की देखभाल करें। मैं नहीं चाहता कि 20 साल बाद इस देश का कोई बुद्धिमान व्यक्ति ये कहे कि चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ ने अपनी आत्मा बेच दी है।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की तरफ से मीडिया में जो बात सार्वजनिक रूप से रखी गई वह इतनी गंभीर भी नहीं थी, जिसे आपस में नहीं सुलझाया जा सकता था। हालांकि उनकी तरफ से यह बात साफ की गई कि उनकी तरफ से किए गए सारे प्रयास विफल रहे। क्योंकि सभी ने अपनी बात मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के सामने रखी, लेकिन एक माह तक कोई सकारात्मक पहल नहीं हुई। जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि वे मजबूर होकर मीडिया के सामने आए हैं। जब पत्रकारों ने यह पूछा कि क्या आप मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाना चाहते हैं तो जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि ये देश को तय करना है।
सवाल उठता है कि फिर जजों ने अपनी बात रखने के लिए मीडिया का उपयोग क्यों किया? क्या मीडिया उन्हें न्याय दिला पाएगा? क्या देश का आम जनमानस मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाअभियोग चला सकता है? क्या किसी जज को सिर्फ प्रेस में अपनी बात रखने से हटाया जा सकता है?
सर्वोच्च अदालत देश की सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था है। अगर इस तरह की कोई असंतुष्टि रही तो राष्ट्रपति से शिकायत की जा सकती थी। वहां भी समाधान नहीं मिलता तो प्रधानमंत्री या फिर दूसरे संवैधानिक स्तर पर बात रखी जा सकती थी। मीडिया इसका अंतिम विकल्प नहीं था, क्योंकि यह सार्वजनिक मंच है, जबकि अदालत संवैधानिक पीठ। हां, तब वे बातें शायद दबा दी जातीं, जो इन चारों जजों ने उठाईं।
लेकिन एक बात यह साफ हो गई कि सर्वोच्च अदालत में भी सब कुब ठीक नहीं चल रहा है। न्याय की कुर्सी पर विराजमान भगवान के रूप जज भी कहीं न कहीं किसी विचारधारा या संस्था से खुद को अलग नहीं कर पा रहे। इससे न्याय प्रभावित हो रहा है या हो सकता है या फिर खतरा है? जजों की बात से यह साबित हुआ कि मुकदमों की सुनवाई रोस्टर की परंपरा से नहीं हो रही।
सीजेआई मुकदमों की सुनवाई संबंधित जजों के बजाय अपनी मनपसंद बेंच को देते हैं? अगर ऐसा है तो यह बात निश्चित रूप से न्याय के खिलाफ है। लेकिन मुकदमों की सुनवाई किस बेंच में हो यह अधिकार मुख्य न्यायाधीश का है फिर इस पर जजों को नाराज होने की क्या जरूरत है। कोई भी बेंच फैसला करेख् क्या फर्क पड़ता है।
हां, फर्क तो तब पड़ता है, जब बात न्याय सिद्धांतों के खिलाफ हो। जस्टिस दीपक मिश्र अपने फैसलों को लेकर चर्चित रहे हैं। यह याकूब मेमन की फांसी, प्रमोशन में आरक्षण पर रोक और अयोध्या मसले की सुनवाई समेत कई अहम फैसलों से जुड़े हैं। लेकिन एक बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस प्रकरण से सर्वोच्च अदालत की छवि और साख प्रभावित हुई है। न्याय की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठे हैं।
यह संवैधानिक पीठ से जुड़ा मसला है। इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। न्यायाधीश हो या राजनेता अथवा देश की जनता, उसे हर हाल में संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को बनाए रखना होगा। तभी लोकतांत्रिक व्यवस्था जिंदा रहेगी। यह विमर्श और चिंतन का विषय है। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)