साइकिल पर घूम रहा ‘आधी आबादी’ का हक
नई दिल्ली, 18 जनवरी (आईएएनएस)| एक शख्स साइकिल पर सवार होकर महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिए जाने के प्रति जागरूकता फैलाने के मिशन पर निकला है। वह उस सोच को समझने और उसमें बदलाव की उम्मीद भरी यात्रा पर है, जो एक महिला को महज महिला होने की वजह से दोयम दर्जे की मानती है।
कन्यादान और दहेज प्रथा के मुखर विरोधी यह शख्स हैं राकेश कुमार सिंह जो ‘राइडर राकेश’ के नाम से मशहूर हैं। खुद उनके शब्दों में कहें तो महिला सशक्तीकरण का सिर्फ ढोल पीटा जा रहा है, सच तो यह है कि बहुत से परिवारों में लड़कियों को पैदा ही नहीं होने दिया जा रहा।
राकेश कहते हैं कि एसिड पीड़िताओं के साथ काम कर उनके दर्द और संघर्षो को करीब से समझने की घटना ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। भ्रूणहत्या, तेजाब हमला, दहेज उत्पीड़न व घरेलू हिंसा से जूझ रही देश की आधी आबादी को ‘निरीह’ मानने वाली सोच पुरुषों में कब घर कर जाती है, इस एक सवाल ने राइडर राकेश को मजबूर कर दिया कि वह देशभर में घूमें और लोगों से मिलकर इस सोच की वजह जानने की कोशिश करें। इसी इरादे से उन्होंने साइकिल थाम ली।
राइडर राकेश ने आईएएनएस के साथ बातचीत में कहा, ऐसी मानसिकता कब और कैसी परिस्थितियों में बनती है कि एक महिला पर बेधड़क तेजाब फेंक दिया जाता है। दहेज न मिलने पर नवविवाहिता को जिंदा जला दिया जाता है। भ्रूण जांच में लड़की की पुष्टि होने पर उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है। ये सवाल मेरे दिमाग में घूम रहे थे और मैंने देशभर में घूमकर इस मानसिकता को समझने की कोशिश की कि आखिर इंसान में यह मानस बनता कैसे है?
राकेश बताते हैं, अक्टूबर, 2013 में मेरे मन में यह ख्याल आया और मार्च 2014 में मैंने साइकिल से यह यात्रा शुरू कर दी। इस दौरान बहुत सी चीजें दिमाग में आईं। मसलन, दुष्कर्म-रोधी नया कानून निर्भया कांड के बाद वर्ष 2012 में आया, लेकिन इसके बाद भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं। दहेज कानून 1961 में बना, लेकिन अभी भी खुलेआम दहेज की मांग होती है और दहेज दिया-लिया जा रहा है। वर्ष 2013 में कानून बना कि तेजाब खुलेआम नहीं बिकेगा, लेकिन बिक रहा है। उत्तर प्रदेश में पुलिस की एक नई पहल ‘एंटी रोमियो स्क्वायड’ शुरू किया गया, फिर भी छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैं। इससे स्पष्ट है कि कानून तब तक कारगर नहीं साबित होगा, जब तक लोग अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे।
बिहार के गांव तरियानी छपरा निवासी राकेश कुमार सिंह (43) चेन्नई से ‘राइड फॉर जेंडर फ्रीडम’ साइकिल यात्रा पर निकल पड़े। वह साढ़े 3 वर्षो में अब तक 13 से अधिक राज्यों की लगभग 20,000 किलोमीटर यात्रा पूरी कर चुके हैं।
राकेश कहते हैं, मैं रोजाना 60 से 70 किलोमीटर तक की यात्रा करता हूं। इस दौरान मेरी साइकिल के आगे एक तख्ती लगी रहती है, जिस पर मैं लैंगिक समानता के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए कुछ संदेश लिखा रहता है। लोगों में कौताहूल होता है, जानने समझने का तो मैं रुककर लोगों को इस बारे में जागरूक करता हूं।
राकेश का सफर चेन्नई से शुरू होते हुए पुडुच्चेरी, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और पंजाब तक पहुंच चुका है।
अपनी इस यात्रा अनुभव के बारे में बताते वह कहते हैं, अब तक की यात्रा में मुझे एक बात समझ आ चुकी है कि स्त्रियों के प्रति असमानता का यह रवैया इंसान अपने घर से ही सीखता है। यह सोच घर से ही पनपती है, जो समय के साथ-साथ इतनी निष्ठुर हो जाती है कि वह पुरुष वर्चस्व के आगे स्त्रियों को कमजोर समझने लगता है। उन्हें स्त्रियों से तुलना, उनसे ‘ना’ सुनना बर्दाश्त नहीं होता।
राकेश कन्यादान पर अपनी राय रखते हुए कहते हैं, पीढ़ियों से चली आ रही इस दकियानूसी सोच को तोड़ने की जरूरत है। क्या कभी बेटी का दान हो सकता है? क्या आप किसी को अपनी बेटी दान देने में खुशी महसूस करते हैं? लेकिन कन्यादान हो रहे हैं। इस दिशा में भी जागरूकता लाने की जरूरत है।
वह बताते हैं, मैंने अपनी मुहिम में अब तक छह लाख लोगों से बात की है, जिसके आधार पर निचोड़ यही निकला है कि सबसे पहले महिलाओं के प्रति सोच बदलने की जरूरत है। बेटियों के पैदा होने का जश्न मनाने की जरूरत है और यही सोच हमें आने वाली पीढ़ी को देनी होगी।
उनकी यह यात्रा 22 दिसंबर, 2018 को बिहार के ही गांव तरियानी छपरा में पूरी होगी। इस दौरान वे ‘राइड फॉर जेंडर फ्रीडम’ को लेकर एक कार्यक्रम का भी आयोजन करेंगे।