राष्ट्रीय

मिथिलांचल की पहचान ‘मखाना’ को बाजार की दरकार

दरभंगा, 25 नवंबर (आईएएनएस)| बिहार के मिथिलांचल की पहचान के बारे में कहा जाता है- ‘पग-पग पोखरि माछ मखान’ यानी इस क्षेत्र की पहचान पोखर (तालाब), मछली और मखाना से जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति तो विकसित कर रहे हैं, लेकिन मखाना को सही ढंग से बाजार उपलब्ध नहीं हो पाने के कारण इसके किसानों के सामने परेशानियां भी खड़ी हो रही हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 10 जिलों में मखाना की खेती होती है। देश में बिहार के अलावा असम, पश्चिम बंगाल और मणिपुर में भी मखाने का उत्पादन होता है, मगर देशभर में मखाने के कुल उत्पादन में बिहार की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत है।

आंकड़ों के मुताबिक, बिहार की 13 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ़ राजवीर शर्मा ने आईएएनएस को बताया कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया, मिथिलांचल और इसके आसपास के इलाकों में प्रतिवर्ष 13 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है, इसमें 90 हजार टन बीज का उत्पादन होता है। इतने बीज से किसान लगभग 35 हजार टन लावा तैयार करते हैं।

डॉ़ शर्मा ने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है, लेकिन हाल के दिनों में अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने एक नई प्रजाति ‘स्वर्ण वैदेही’ विकसित किया है, जिसकी खेती खेतों में भी की जा सकेगी।

उन्होंने बताया कि कृषि वैज्ञानिक डॉ़ लोकेंद्र कुमार और डॉ़ विनोद कुमार ने शोध में इस प्रजाति की खोज की है। उनका कहना है कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा सकता है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है, लेकिन इस विधि से फसल भी जल्द तैयार होगी और उत्पादन में भी वृद्धि होगी।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है। स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में होगी और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जाएगी। इन वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आएगा और उत्पादन अधिक होगा।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा स्थित एम़ आऱ एम. कॉलेज के प्राचार्य प्रो़ विद्यानाथ झा ने कहा कि मिथिला के जलीय उत्पादों को अनुसंधान कर और बेहतर बनाया जाना चाहिए। स्वरोजगार के इच्छुक युवाओं को इस क्षेत्र से जोड़ा जाए। जलीय उत्पादों की बदौलत यह क्षेत्र आर्थिक रूप से समृद्ध बनेगा।

उन्होंने बताया, मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के प्रसिद्ध व्यवसायी राजकुमार सहनी ने आईएएनएस को बताया कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष 22 से 25 करोड़ की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी मखाना दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश भेजते हैं।

एक अन्य व्यापारी भरत सहनी की मानें, तो मखाना से लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है। मखाना की प्रोसेसिंग के अलावा पैकिंग कर अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि दरभंगा के बाजार में इस जिले सहित आसपास के क्षेत्रों के किसान आकर अपना मखाना बेच देते हैं। ऐसे में उन्हें कम लाभ होता है। उनका मानना है कि अगर इस क्षेत्र में बड़े निवेशक आ जाएं, तो किसानों को आर्थिक राहत मिलेगी।

बहरहाल, यहां के किसान तो किसी तरह मखाना का उत्पादन कर मिथिलांचल को मखाना के क्षेत्र में प्रसिद्धि दिला रहे हैं, लेकिन इनकी समस्याओं पर भी विचार करने की जरूरत है।

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