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झांसी में आधुनिक लक्ष्मीबाइयों की जंग अशिक्षा व गरीबी से! (लक्ष्मीबाई जन्मदिन पर विशेष)

झांसी, 19 नवंबर (आईएएनएस)| झांसी का जिक्र आए और उसमें पहली आजादी की जंग की नायिका रानी लक्ष्मी बाई की चर्चा न हो, ऐसा संभव नहीं है। यहां की तासीर ही कुछ ऐसी है कि महिलाएं संघर्ष में सबसे आगे नजर आती हैं। यहां के गरीब तबके की बालिकाओं ने अशिक्षा और गरीबी के खिलाफ ऐसी जंग शुरू की है, जिसका कारवां लगातार बढ़ता जा रहा है।

यहां के सीपरी बाजार क्षेत्र में चलने वाला सरस्वती संस्कार केंद्र द्वारा वाकई नए तरह के संस्कार देने का काम कर रहा है। यहां गरीब और समाज के उपेक्षित वर्ग की बालिकाओं और बालकों को शिक्षा और स्वाबलंबी बनने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। कई ऐसी युवतियां हैं, जो महज पांच वर्ष की आयु में इस केंद्र से जुड़ीं और आज वे न केवल दूसरों को शिक्षित व प्रशिक्षित कर रहीं हैं, बल्कि अपने परिवार को भी आर्थिक संबल देने में सफल हो रही हैं।

रेखा बाघरी (21) ऐसे समुदाय से आती हैं, जिसका गुजरात से नाता है, वहां यह जाति अनुसूचित जाति की श्रेणी में है। घुमंतू वर्ग से संबद्ध रेखा जब महज पांच साल की थी, तभी से उसने इस संस्कार केंद्र में आना शुरू किया। केंद्र के सहयोग से वह स्नातक तक की पढ़ाई पूरी कर चुकी है, और वह सिलाई में भी दक्ष हो चुकी है।

रेखा बताती है, सेवा समर्पण समिति द्वारा संचालित केंद्र से जुड़ने के बाद मेरी जिंदगी बदलने का क्रम शुरू हो गया था। मैं पढ़ी, अब कपड़ों की सिलाई करती हूं, इसके जरिए मिलने वाले पारिश्रमिक से परिवार की बड़ी मदद करने में सफल हो रही हूं। मेरे पिता ठेला लगाकर पुराने कपड़े बेचते हैं।

रेखा की इच्छा है कि वह अन्य ऐसे बच्चों को भी शिक्षा और रोजगार के हुनर सिखाए, जिससे वे अशिक्षा के अंधकार और गरीबी के दुष्चक्र से बाहर आएं। रेखा अपने इस काम में भी लगी हुई है। वह महिलाओं के कपड़ों की सिलाई तो करती ही है, लड़कियों को प्रशिक्षण देती है और पढ़ाती भी है।

सेवा समर्पण समिति के राजकुमार द्विवेदी बताते हैं कि वे जब शिक्षक हुआ करते थे, तब लगभग 17 वर्ष पूर्व गरीब दो बालिकाओं ने पढ़ने की इच्छा जताई। इनकी इच्छा पूरी करने के लिए यह केंद्र शुरू किया, जब पत्नी की नौकरी लग गई, तो सरकारी नौकरी छोड़कर पूरी तरह समाज सेवा के क्षेत्र में आ गए। एक तरफ शिक्षा जागृति लाने में मददगार हो रही है, वही रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं।

द्विवेदी के मुताबिक, सुबह पढ़ाई, उसके बाद चार घंटे सिलाई, संगीत कक्षा और स्वास्थ्य सुविधा का दौर इस केंद्र में चलता है। यहां आने वाले अधिकांश बच्चे गरीब व झुग्गी झोपड़ियों की बस्ती के होते हैं। सिलाई करने वाले को चार घंटे के बदले 40 रुपये और प्रति पेटीकोट पांच रुपये अलग से दिए जाते हैं। एक भी पेटीकोट नहीं सिला तो भी 40 रुपये तो मिलना तय है।

पूजा ने 12वीं तक की पढ़ाई इसी केंद्र के जरिए पूरी कर ली है। दिव्यांग होने के बावजूद वह सिलाई का भी काम करती है। वह बताती है कि उसके पिता बसंत फेरी लगाकर सामान बेचते हैं। वह सिलाई के जरिए अर्जित राशि से परिवार की मदद करने में सफल हो रही है।

द्विवेदी के मुताबिक, यहां से कई व्यापारी महिलाओं के ब्लाउज और पेटीकोट बनवाकर ले जाते हैं, कई ऐसे लोग हैं जो वृद्धाश्रम सहित अन्य स्थानों पर दान में देने के लिए बने हुए कपड़े ले जाते हैं। इससे होने वाली आय से सिलाई के काम में लगी युवतियों को स्वावलंबी बनने का मौका मिल रहा है।

बताया है कि इस केंद्र से जुड़ी 13 युवतियों की शादी कराई जा चुकी है, वहीं एक और बेटी की शादी छह दिसंबर को होने वाली है। यह समिति अपने केंद्र से जुड़ी युवतियों की शादी में भरपूर मदद करती है।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेकर इस क्षेत्र को नई पहचान दिलाने के साथ अपने जीवन की आहूति दे दी थी। 19 नवंबर को उनका जन्मदिन है, इस मौके पर यहां की महिलाओं के संघर्ष की कहानी सामने उभर आती है।

वर्तमान में यहां की युवतियां ‘आधुनिक लक्ष्मीबाई’ बनकर अशिक्षा और गरीबी को खत्म करने की लड़ाई लड़ रही हैं। यह लड़ाई लंबी चलेगी। कई परिवारों की तो इन आधुनिक लक्ष्मीबाइयों ने तस्वीर ही बदल दी है, मगर उनका लक्ष्य बदलाव की रोशनी दूर तक बिखेरने का है।

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