‘रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति मानवतावादी रवैया अपनाए भारत’
रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे का दक्षिण पूर्वी और दक्षिण एशिया की सुरक्षा पर गंभीर असर हो सकता है। इनकी कमजोर स्थिति इन्हें आसानी से आतंकवादी संगठनों द्वारा अपने समूहों में शामिल किए जाने का कारण बन सकती है।
ह्यूमन राइट्स वॉच रिपोर्ट 2017 के अनुसार, म्यांमार में जून 2012 से जातीय सफाई अभियान जारी है, जिसके तहत रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ सबसे गंभीर और व्यापक हिंसा बरपाई जा रही है।
रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा चलाए जा रहे अभियानों के कारण सामूहिक नरसंहार, थर्ड डिग्री टॉर्चर, मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां, दुष्कर्म और अन्य यौन अपराधों समेत मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है। इतना ही नहीं, इन लोगों को कहीं आने-जाने, शादी, शिक्षा और रोजगार जैसे मसलों में भी आजादी नहीं है।
गंभीर खाद्य असुरक्षा और कुपोषण के चलते रोहिंग्या मुसलमानों को कई रोगों का भी सामना करना पड़ रहा है क्योंकि सरकार, मानवतावादी एजेंसियों को उन्हें खाद्य सामग्री और दवाओं जैसी आवश्यक सामग्री तक मुहैया नहीं कराने दे रही है।
2012 में हिंसा शुरू होने के बाद से करीब 1,20,000 रोहिंग्या मुसलमान विभिन्न रेखाइन शिविरों और पड़ोसी देशों में विस्थापित हो चुके हैं।
मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकरी का बयान सामने आया था, जिसके अनुसार पिछले कुछ दिनों में ही कम से कम 1,23,000 रोहिंग्या मुसलमान सीमा पार करके बांग्लादेश पलायन कर चुके हैं। इनमें से 30,000 लोगों ने 24 घंटों में पलायन किया।
रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ कई वर्षो के मानवाधिकार उल्लंघनों के बाद अक्टूबर 2016 में बांग्लादेश की सीमा से सटी मे यू पर्वत श्रृंखला में अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (एआरएसए) नाम का एक आतंकवादी संगठन उभरा।
25 अगस्त, 2017 को रोहिंग्या आतंकवादियों ने रेखाइन राज्य में सीमा पुलिस पर हमला कर दिया, जिसमें 12 सुरक्षाकर्मियों समेत 71 लोगों की मौत हो गई। इसके बाद, रोहिंग्या लोगों ने सुरक्षा बलों पर बिना किसी कारण गोलीबारी का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि उन्होंने यहां तक कि ‘बच्चों को भी नहीं छोड़ा।’
म्यांमार को 1997 में आसियान के एक पूर्णकालिक सदस्य के रूप में शामिल किया गया था।
दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान) ने सदस्य देशों के बीच मानवाधिकार बढ़ाने के उद्देश्य से 2009 में मानवाधिकार पर आसियान अंतर-सरकारी आयोग गठित किया था। 2012 में नोम पेन्ह में आसियान शिखर सम्मेलन में आसियान मानवाधिकार घोषणा (एएचआरडी) का प्रारूप तैयार किया गया और एकमत से स्वीकृत किया गया था।
म्यांमार एएचआरडी का हस्ताक्षरकर्ता है और उसने मानवाधिकारों की रक्षा और प्रचार के लिए सहयोग की प्रतिबद्धता जताई है। इसके बावजूद रोहिंग्या मुद्दा गंभीर होता जा रहा है।
भारत ने दक्षिणपूर्व एशिया के साथ बहुपक्षीय संबंध बढ़ाने के लिए 1990 के दशक में ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ लागू की थी। इस नीति को सभी सरकारें अपनाती रही हैं और इसका काफी लाभ भी मिला है।
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद संभालने के तत्काल बाद ही 2014 में म्यांमार की यात्रा की थी। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने भारत-प्रशांत क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिया था। इस नीति की संभावनाओं में विस्तार करते हुए इसका नाम बदलकर ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ (एईपी) कर दिया गया।
एईपी का मुख्य उद्देश्य एशिया-प्रशांत क्षेत्र में द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और बहुपक्षीय संबंधों के जरिए तीन ‘सी’ यानी वाणिज्य, संपर्क और संस्कृति को बढ़ावा देना है। भारत के पूवरेत्तर को एईपी में प्राथमिकता दी गई है और इस नीति का प्रचुर लाभ भी मिल रहा है, जिसके चलते 2016 में आसियान के साथ व्यापार बढ़कर 70 अरब डॉलर हो गया।
म्यांमार भारत और आसियान के बीच एक कड़ी है। एईपी की सफलता के लिए म्यांमार से भारत के सुखद संबंध जरूरी हैं। हालांकि दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्ते और नजदीकी भू-रणनीतिक संबंध हैं, लेकिन रोहिंग्या समस्या इस द्विपक्षीय संबंध पर असर डाल सकती है। इसलिए रोहिंग्या शरणार्थी मामले को एक मानवतावादी संकट समझते हुए दोनों पक्षों की ओर से इसका समाधान तलाशा जाना चाहिए।
रिपोर्टो के अनुसार, भारत में करीब 40,000 रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं। गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने ‘विदेशी अधिनियम’ के तहत ‘अवैध’ रोहिंग्या लोगों की पहचान, गिरफ्तारी और प्रत्यर्पण पर चर्चा के लिए बैठक की थी।
दुनिया के सर्वाधिक उत्पीड़ित समुदाय को वापस भेजने के भारत सरकार के फैसले की भारतीय मानवाधिकार संगठनों ने आलोचना की है।
हालांकि, रोहिंग्या लोगों का मुद्दा म्यांमार का एक आंतरिक मामला है और इसका क्षेत्रीय सुरक्षा पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है, लेकिन इसे मानवतावादी नजरिये से भी देखा जाना चाहिए। हालांकि भारत एएचआरडी का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, लेकिन विभिन्न स्तरों पर आसियान के साथ संबंध को देखते हुए मोदी म्यांमार को एएचआरडी के प्रति उसकी प्रतिबद्धता की याद दिला सकते हैं और नेतृत्व से इस मुद्दे का एक उचित समाधान ढ़ूंढ़ने का आग्रह कर सकते हैं।
(डॉ. बावा सिंह पंजाब सेंट्रल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)