पहाड़ी सभ्यता को स्वयं में समेटे है ये मुखौटा का पर्व, जानें इसकी विशेषता
पिथौरागढ़। भारत में उत्तराखंड का अपने आप में एक बहुत बड़ा नाम है। उत्तराखंड एक ऐसा प्रदेश है जो देवभूमि के नाम से मशहूर है। उत्तराखंड प्रदेश का हर हिस्सा खुद में सदियों पुराना इतिहास और कई सांस्कृतिक विरासत समेटे है। पहाड़ की सभ्यता यहां के लोगों के रगों में बसा हुआ है।
ऐसी ही आस्था और मनोरंजन को खुद में समेटे हुए सोरघाटी पिथौरागढ़ का ऐतिहासिक पर्व हिलजात्रा यहां पिछले 500 सालों से मनाया जा रहा है। आज भी इन पर्वों के प्रति शहरी हो या ग्रामीण किसी का भी लगाव कम नहीं हुआ है। उत्तराखंड का पहाड़ी समाज प्राचीन काल से ही कृषि पर आधारित समाज है। यही वजह है कि यहां के अधिकांश लोकपर्व भी कृषि पर ही आधारित होते हैं।
जिले के सोरघाटी में सावन और भादों के महीने को कृषि पर्व के रूप में मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। सातूं-आठूं से शुरू होने वाले इस पर्व का समापन पिथौरागढ़ में हिलजात्रा के रूप में होता है। हिलजात्रा का शाब्दिक अर्थ है कीचड़ का उत्सव। संभवत: बरसात के दिनों में इस पर्व के होने से इसके साथ नाम जुड़ा है।
ये पर्व पूरे भारतवर्ष में केवल पिथौरागढ़ के सोर, अस्कोट और सीरा परगने में मनाया जाता है। लेकिन इस हिलजात्रा की असल शुरुआत पिथौरागढ़ जिले के कुमौड़ गांव से हुई है। पर्व में दर्जनों पात्र मुखौटों के साथ मैदान में उतरकर दर्शकों को रोमांचित करते हैं। मैदान में ये पात्र हुक्का-चिलम पीते मछुवारे, शानदार बैलों की जोडिय़ां, छोटा बल्द, बड़ा बल्द, अडिय़ल बैल (जो जोतने में लेट जाता है), हिरन चीतल, ढोल नगाड़े, हुडक़ा, मजीरा, खड़ताल और घंटी की संगीत लहरी के साथ नृत्य करती नृत्यांगनाएं, कमर में खुंखरी और हाथ में दंड लिए रंग-बिरंगे वेश में पुरुषों के साथ ही धान की रोपाई का स्वांग करती महिलायें ऐसा नज़ारा पेश करते हैं कि हर कोई मंत्रमुग्ध हो जाता है।
इस पर्व में दिखाया जाता है पहाड़ का खेती के प्रति प्रेम
ये सभी पात्र पहाड़ के कृषि प्रेम को भी दर्शाते हैं। इस पर्व का समापन लखियाभूत के आगमन के साथ होता है। जिसे भगवान शिव का गण माना जाता है। अचानक ही गांव से तेज नगाड़ों की आवाज आने लगती है। जो हिलजात्रा के प्रमुख पात्र लाखिया भूत के आने का संकेत है। ढोल नगाड़ों की आवाज सुनते ही सभी पात्र इधर-उधर पंक्तियों में बैठ जाते हैं और पूरा मैदान खाली करा दिया जाता है। तब दोनों हाथ में काला चंवर लिए काली पोशाक में बेहद डरावनी भेष-भूषा में लाखियाभूत मैदान में आता है।
सबसे बड़ा आकर्षण होता है लखियाभूत का
लखियाभूत अपनी डरावनी आकृति के बावजूद मेले का सबसे बड़ा आकर्षण होता है। सभी लोग अक्षत और फूलों से लाखियाभूत की पूजा-अर्चना करते हैं और घर परिवार, गांव की खुशहाली के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। लखिया लोगों को सुख और समृद्धि का आशीर्वाद देने के साथ ही अगले वर्ष आने का वादा कर चला जाता है। सदियों से मनाये जा रहे इस पर्व को हर साल बडे हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है।
हिलजात्रा पर्व का आगाज भले ही महर भाइयों की वीरता से हुआ हो लेकिन वक्त के साथ साथ इसे कृषि पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
धान रोपती महिलाए और बैलों को हांकता हलिया पहाड़ के कृषि जीवन को दर्शाते है। तेजी से बदलते इस दौर में जहां लोग अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर होते जा रहे है। वही शोर घाटी के लोगों का अपनी संस्कृति के प्रति लगाव अनूठा उदाहरण पेश कर रहा है।
सोरघाटी पिथौरागढ़ के इस महापर्व का एक धार्मिक पहलू ये भी है जो इसपर लोगों की आस्था और विश्वास को और गहरा कर देता है। दरअसल हिलजात्रा के मुख्य पात्र को भगवान शिव के प्रमुख गण वीरभद्र का अवतार माना जाता है। इसके पीछे की पूरी कहानी क्या है देखिये इस रिपोर्ट में।
सीमांत जि़ले पिथौरागढ़ के कुमौड़ गांव में मनाई जाने वाली इस हिलजात्रा के प्रमुख पात्र लखिया भूत को वीरभद्र का अवतार माना जाता है। वीरभद्र भगवान शिव की जटा से प्रकट हुआ था। कहा जाता है कि भगवान शिव के ससुर दक्ष प्रजापति ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उन्होंने अपनी पुत्री सती और जमाई भगवान शंकर को निमंत्रण नहीं दिया।
लेकिन उनकी पुत्री सती शिव के लाख मना करने के बाद भी इस यज्ञ में चली गयी। यज्ञस्थल पर दक्ष प्रजापति द्वारा शिव का घोर अपमान किया गया जिसे सती सहन नहीं कर पायी और यज्ञ की अग्नि में कूदकर भस्म हो गयी। ये समाचार पाकर भगवान शंकर क्रोधित हो गए और उन्होंने अपनी एक जटा तोडक़र जमीन में पटक दी। जिससे वीरभद्र प्रकट हुए और उन्होंने यज्ञ का विध्वंश कर दिया साथ ही दक्ष प्रजापति का सर भी काट डाला। ये ही लखिया भुत यानि वीरभद्र की उत्त्पत्ति की कहानी है। जिससे इस पर्व को जोड़ा जाता है।
पड़ोसी देश नेपाल से भारत पहुंचा है ये पर्व
नेपाल में वीरभद्र के लखिया अवतार की पूजा हज़ारों सालों से की जाती रही है। ऐसे में नेपाल से भारत आये इस लोकपर्व को आज भी उसी धर्मिक स्वरूप में मनाया जाता है। भगवान शंकर की जटा से उत्पन्न होने के कारण वीरभद्र के स्वरूप लखिया भूत को बेहद गुस्सैल स्वभाव का माना जाता है। यही कारण है कि मैदान में आते समय लखिया को लोहे की चैन से जकड़ा जाता है।
हिमालयी संस्कृति का भी प्रतीक है ये यात्रा
सोरघाटी का प्रसिद्ध लोकपर्व हिलजात्रा हिमालयी संस्कृति का भी प्रतीक है। हिमालयी संस्कृति देश की मुख्यधारा की संस्कृति से कुछ कुछ अलग है। इसका स्वरूप लद्दाख से लेकर पूर्वोत्तर तक फैली हिमालय की पहाडिय़ों में लगभग एक जैसा है। पर्वतीय क्षेत्र की कृषि व्यवस्था और संस्कृति को दर्शाने वाला यह पर्व यहां लोगों की धार्मिक आस्था से भी जुड़ा है। जिसे देखने के लिए हज़ारों लोग यहां जुटते हैं।