राजनीति

राजनीति में धर्म का फंडा और चोखा धंधा

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राजनीति व्यापकता का बोध कराती है। जब हम इसकी बात करते हैं तो हमारे सामने देश, समाज, समूह और उसमें बिखरी तमाम संभावनाएं साफ दिखती हैं। यह दायित्व और कर्तव्य का बोध करता है। इसका सीधा संबंध लोक और गणतंत्र से जुड़ा है, लेकिन बदलते वक्त के साथ क्या राजनीति की भाषा और परिभाषा भी बदल गई है। उसका विस्तृत उद्देश्य क्या सिमट गया है।  राजनीति क्या सिंहासन और सत्ता की परिक्रमा में बंध गई है। वह क्या अपनी विशाल नीति और अपार संभावनाओं की पृष्ठभूमि वाले दायित्व को भूल गई या भुला दिया गया है। लोक और उसके कल्याण की बात बेमानी हो गई है। वर्तमान भारतीय राजनीति में यह विचारणीय बिंदु है। राजनीति महज संविधान की शब्दावली नहीं है, यह पवित्र विचाराधारा है। लेकिन वह बात पीछे छूट गई है।
आजादी के बाद हमने अपनी सोच और नीतियों को केवल सत्ता के केंद्रीय बिंदु तक सीमित रखा। उसकी गहराई और व्यापकता पर गौर नहीं किया गया। अगर उसकी पवित्रता पर खयाल किया गया होता तो सर्वोच्च न्यायालय को यह टिप्पणी न करनी पड़ती कि धर्म, जाति, भाषा के आधार पर वोट मांगना गैर संवैधानिक होगा। अदालत की तरफ से दिया गया निर्देश कोई नई बात नहीं है, यह हमारे संविधान और कानून की किताब में मौलिक अधिकारों में वर्णित है। लेकिन राजनीति ने उसका उपयोग अपने फायदे के लिए किया। राजनीति का सिर्फ एक ही धर्म बचा है, केवल सत्ता। हमारे लोकतंत्र के लिए यह सबसे बड़ी विडंबना है।
राजनीति का धर्म होना चाहिए, लेकिन जब धर्म राजनीति बन जाए वह सबसे बुरा है। धर्म, जाति और भाषा की राजनीति न की जाए तो अपने आप में यह सेक्युलरवादी हो जाएगी फिर इस पर उंगली उठाने और टिप्पणी करने का किसी के पास सवाल ही नहीं बचेगा।  फिलहाल ऐसा होगा संभव नहीं दिखता है। राजनीति में धर्म का टंटा बेहद पुराना है। कांग्रेस जहां अपने को सेक्युलरवादी होने का ढिंढोरा पीटती है, वहीं भाजपा पर सांप्रदायिकता की चाशनी चढ़ती है। लेकिन सिर्फ दो ही दलों को दायरे में रखना बेमानी और नाइंसाफी होगी।

चुनावी मौसम में राजनीति में धर्म धंधा हो गया। प्रतिबंध के बाद भी पांच राज्यों में इसका उपयोग खुलकर देखने को मिलेगा। यूपी में यह सब कुछ अधिक दिखाई देगा। राजनीतिक दलों में आम चुनावों में इसे फंडे के रूप में उपयोग किया जाता है। 90 के दशक के बाद मंडल और कमंडल की कोंपलों का आज इतना विस्तार हो चला है कि उसका ऑपरेशन करना मुश्किल है।
पूर्व पीएम रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरफ से मंडल और भाजपा की झोली से निकले कमंडल के बीज उर्वर सियासी जमीन पर इतने छिटक गए हैं कि उन्हें जड़ से निकालना बेहद मुश्किल होगा। यूपी और बिहार जातिवादी राजनीति के अहम पृष्ठभूमि वाले राज्य बन कर उभरे। आरक्षण ने जहां जाति की राजनीति को हवा दिया, वहीं राममंदिर आंदोलन ने धर्म का धुआं फैलाया जो आज ‘आग का गोला’ बन गया है। यूपी में जातिवादी विचारधारा के आधार पर ही सपा-बसपा सरीखे दलों का उदय हुआ। इसकी गहराइयों की जाने की जरूरत नहीं है। कोई राज्य ऐसा नहीं है, जहां धर्म, जाति और भाषा के आधार पर क्षेत्रीय दलों का गठन न हुआ हो।
बहुतायत राज्यों में बड़े दल कांग्रेस और भाजपा की छोटे एवं क्षेत्रीय दल सियासी मजबूरी बन गए, जिसका नतीजा रहा की पूरे देश में धर्म, जाति और भाषा के आधार पर राजनीति होने लगी और दलों का उदय हुआ। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर और पूर्वोत्तर तक इस नीति का व्पापक विस्तार हुआ। यह नीति केवल हिंदू, सिख धर्म, जाति में ही नहीं बढ़ा, मुस्लिम बहुल राज्यों में भी ओवैसी जैसे लोगों ने धर्म आधारित दलों का गठन किया, जिसका नजीता रहा कि चुनाव आयोग में यह संख्या 1900 से अधिक हो चली है। आयोग 250 से अधिक दलों की मान्यता खत्म करने पर विचार कर सकता है। सर्वोच्च अदालत और योग की शक्ति के बाद भी राजनीति में धर्म का धंधा मंदा पड़ता नहीं दिख रहा।
चुनाव अयोग के निर्देश के ठीक बाद भाजपा के भगवाधारी बरिष्ठ नेता साक्षी महराज ने मेरठ की एक सभा मुस्लिमों पर सीधा हमला बोला। चार बीबी और 40 बच्चों वाला उनका बयान सियासी भूचाल ला दिया। हालांकि आयोग के निर्देश पर उन पर मुकदमा भी दर्ज और उन्हें बयान से पल्ला झाड़ना पड़ा, क्योंकि एक तरफ पीएम मोदी विकास के नाम पर वोट डालने की बात कहते हैं, वहीं उनके मंत्रिमंडल का कोई सहयोगी धर्म की वकालत करे तो वह पार्टी की सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा।
भाजपा भी साक्षी के बयान से पीछे हट गई। लेकिन उन सब का क्या मतलब, राजनीति के लिए यह आम बात हो गया है। यूपी में पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में चुनावी उत्सव है। इन राज्यों में धार्मिक अबीर-गुलाल उड़ेंगे। बसपा सुप्रीमो मायावती ने तो बकायदा प्रेस ब्रीफ में जातिवार उम्मीदवारों की सूची मीडिया को गिनाई। समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां ने मुस्लिमों को सीधे समाजवादी पार्टी को वोट डालने की वकालत की।
चुनाव पूर्व उत्तराखंड सरकार का फैसला जगजाहिर है, जिसमें रावत सरकार की तरफ से मुस्लिम जातियों के लिए एक फरमान जारी किया गया, जिसमें कहा गया कि कार्यस्थल पर लोग इबादत अदा कर सकते हैं। सरकार का यह फैसला केवल चुनाव को देखते हुए लिया गया। वहीं यूपी में अखिलेश सरकार इसी को ध्यान में रख कर राज्य की 17 ओबीसी जातियों को अनुसूचित जाति का लाभ दिलाने के लिए केंद्र को प्रस्ताव भेजा। यह सब चुनावी लॉलीपॉप के अलावा और कुछ नहीं है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या सियासी दल इससे बाज आएंगे। आयोग का कानूनी डंडा उन पर प्रतिबंध लगा सकता है। धर्म, जाति, भाषा, रंग जहां राजनीति की आत्मा बन गया हो, वहां यह सब कैसे संभव है।
इंदिरा गांधी के दौर में एक नारा उछला था जात पर न पांत पर इंदिरा की बात पर मुहर लगेगा..। गरीबी मिटाते-मिटाते एक युग का अंत हो गया। अब विमुद्रीकरण के बाद कैशलेस और विकास की बात की जा रही है।
यह सुखद संदेश है कि यूपी की राजनीतिक फिजां से राममंदिर का मसला फिलहाल गायब है, दशहरे में ‘जय श्री राम जय जय श्री राम’ कहने के बाद पीएम मोदी विकास की बात कर रहे हैं। लेकिन यह कब तक और क्यों? बस इंतजार कीजिए, सब कुछ साफ हो जाएगा कि धर्म के तिलस्म से राजनीति निगलेगी या फिर इसी पर राजनीति होगी।

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