कुमाऊं की रामलीला में रागों और धुनों पर संवाद अदायगी
यूं तो इन दिनों हर जगह रामलीलाओं का मंचन हो रहा है. मगर कुमाऊं में होने वाली रामलीला की बात ही कुछ और है. यहां की रामलीला भीमताल के एक स्थानीय ज्योतिषी पण्डित रामदत्त के लिखे रामचरित मानस के नाटक पर खेली जाती है. जिसमें शास्त्रीय संगीत पर आधारित रागों और धूनों पर संवाद अदायगी की जाती है. वक्त के मुताबिक इनमें कईं बदलाव आए फिर भी लोगों के बीच रामलीला की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है.
जी हां दशहरे में हर जगह रामलीला का मंचन आम होता है. लेकिन यहां की रामलीला अपने आप में खास है. यहां की रामलीला साहित्य कला और संगीत के संगम की तरह है. अवधी भाषा के लिखे छन्द राग रागिनियों पर आधारित संगीत की बानगी पेश कर रही है. जो की मैदानी इलाकों की रामलीलाओं से बिलकुल अलग है. रामलीलाओं के कलाकार भी इसमें बदलाव कर दर्शकों को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, जिसमें कलाकारों का अभिनय बदलते दौर में भी कुमाऊंनी रामलीला के मंचन को जीवंत बनाये हुए है.
इस रामलीला के मंचन से पहले दो महीनों तक कलाकारों को पूरी तालिम दी जाती है, इसके बाद मंच पर अभिनय करना होता है. लेकिन आज इन्टरनेट और टीवी के नाटक सीरीयलों के दौर में भी रामलीला की अहमियत में कमी नहीं आई है. जिसका इन्तजार कुमाऊं के हर व्यक्ति को रहता है. यही कराण भी है कि ये रामलीला आज भी दर्शक जोड़ी है. हांलाकि कलाकारों की कमी भी रामलीला के मंचन में एक बड़ी कठिनाई है.
पिछले 25 सालों से रामलीला में अभिनय कर रहे कैलाश जोशी का कहना है कि पहाडों की रामलीला मैदान की रामलीला से भिन्न है. क्योंकि मैदानी इलाकों में खेली जाने वाली रामलीला सिर्फ डायलाग पर खेली जाती है. जबकि पहाडों में रामलीला के मंचन में चौपाई छन्द दोहे सब कुछ होता हैं. जिसके चलते यहां की गायन शैली काफी भिन्न है.
वहीं मंच निर्देशक मुकेश जोशी का कहना है की पिछले सालों में कलाकारों को जुटाने में काफी दिक्कतें आ रही हैं. पहले एक रोल के लिये 20 लोग आते थे, लेकिन अब एक व्यक्ति मिलना ही भारी है.