उत्तराखंड

पर्यावरण के संत सुंदरलाल बहुगुणा

पैंतालीस   साल पहले उत्तराखंड sundar पहाड़ी इलाकों में एक आंदोलन शुरु हुआ। यहां के स्थानीय निवासियों ने पेड़ों को काटने के खिलाफ जंग छेड़ दी और नारा दिया – पहले हमें काटो और फिर हमारे जंगल। इस आन्दोलन को पुरुषों और महिलाओं ने एकजुट होकर सफल बनाया। सभी जाकर पेड़ों से चिपक कर खड़े हो गए और पेड़ काटने गये ठेकेदारों को उल्टे पांव लौटना पड़ा। आज भी जब कभी चिपको आंदोलन का जिक्र होता है तो वृक्षों की रक्षा के लिए व्यापक जंग छेडऩे वाले समाजसेवी सुंदर लाल बहुगुणा की छवि ही आंखों में तैरती है। उत्तराखंड के गढ़वाल जिले से शुरु हुई इस मुहिम से देश ही नहीं वरन दुनिया भर के लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुक किया। यह सुंदरलाल बहुगुणा की जीवटता का कमाल है कि जंगल को बचाने के लिए कर्नाटक व उड़ीसा जैसे देश के कई अन्य राज्यों में जो आंदोलन हो रहे हैं जो चिपको आंदोलन से ही प्रेरित हैं।
देहरादून से कोई बीस किलोमीटर दूर शुक्लापुर स्थित एक आश्रम में पेड़ों को दुलराते 90 वर्षीय सुंदरलाल बहुगुणा से मिलिएगा तो उनके मुंह से यहीं एक शब्द निकलता है कि आप देश की उम्मीद हैं औैर पर्यावरण को बचाना आपकी पहली जिम्मेदारी है। प्रकृति की लाश पर विकास हो रहा है जो कि बेहद खतरनाक है। अपने बेटों से भी ज्यादा अपने वृक्षों को चाहने वाले सुंदरलाल बहुगुणा की स्मृतियों में आज भी चिपको आंदोलन जिंदा है।
जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार ।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार ।
चिपको आंदोलन के दौरान सूत्र वाक्य या कहे नारों को दोहराते श्री बहुगुणा हर मिलने वाले से एक पौधा लगवाने का संकल्प जरूर दिलवाते हैं।
गांधीवादी विचारों के समर्थक सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी 1927 को टिहरी के ही मरोडा़ गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम पूर्णा देवी और पिता का नाम अम्बादत्त बहुगुणा था। स्थानीय कॉलेज से पढ़ाई के बाद उन्होंने लाहौर सनातन धर्म कॉलेज से बीए किया। उनकी एमए की पढ़ाई उधूरी रह गई। काशी विद्यापीठ से एमए के दौरान मीरा बहन की समाजसेवा से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी।
तेरह वर्ष की अवस्था में श्रीदेव सुमन से मिलने पर सुंदरलाल बहुगुणा स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल हो गए। मात्र सत्रह वर्ष  की अवस्था में ही इनको गिरफ्तार कर लिया गया। पांच महीने बाद मरणासन्न अवस्था में नरेन्द्रनगर हवालात से रिहा हुए। इसके बाद वह कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।
शादी के बाद समाजसेवा से जुड़े
1956 में उन्होंने सरला बहन की शिष्या विमला नौटियाल के साथ विवाह किया। धर्म पत्नी विमला के कहने पर उन्होंने राजनीति को हमेशा के लिए अलविदा कह कर समाजसेवा की ठानी। टिहरी से कुछ दूर उन्होंने सिल्यारा गांव में नवजीवन आश्रम की स्थापना की। अपनी पत्नी का सहयोग पाकर उन्होंने पर्वतीय नवजीवन मंडल की स्थापना की। पर्वतीय नवजीवन मंडल ने बच्चों विशेषकर लड़कियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया। अपने इष्टï मित्रों व स्थानीय निवासियों के सहयोग से उन्होंने संस्था बहुत दिनों तक चलाई। 1950 में उन्होंने छुआछूत के खिलाऊ लड़ाई लडऩे के निए ठक्कर बाबा छात्रावास की स्थापना की। इसके बाद से वे लगातार सामाजिक अव्यवस्थाओं और कुरीतियों के खिलाफ आन्दोलन चलाते रहे। दलितों को मंदिर प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया। सन 1971 में शराब की दुकानों को खोलने से रोकने के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया। उनके अनशन से केंद्र सरकार तक सकते में आ गई थी।
बेटे का हाथ टूटा पर संकल्प नहीं
समाजसेवा की राह में उन्होंने अपने परिवार को कभी आड़े नहीं आने दिया। सुंदरलाल बहुगुणा जी के बेटे प्रदीप बहुगुणा जो एक जाने माने पत्रकार हैं बताते हैं कि एक बार देहरादून में बहुगुणा जी का जनसम्पर्क अभियान चल रहा था और वह टिहरी से चालीस किलोमीटर दूर सिल्यारा गांव में अपनी मां के साथ रहते थे । उस समय उनकी उम्र दस वर्ष रही होगी। एक दिन खेलते समय सडक़ पर फिसलने से हाथ टूट गया था। सुंदरलाल बहुगुणा जी को खबर हुई कि उनके बेटे का हाथ टूट गया है और बेटा रो रोकर उन्हें याद कर रहा है। खबर पाकर बहुगुणा जी ने कहा कि जब तक उत्तराखंड में मेरा जनसम्पर्क अभियान पूरा नहीं हो जाता तब तक मैंने बस में न बैठने और सिर्फ पैदल चलने का संकल्प लिया है। मैं अपना संकल्प नहीं तोड़ंूगा और पैदल ही सिल्यारा गांव जाऊंगा। प्रदीप जी बताते हैं कि मेरी मां ने पिता जी से कहा कि आप अपना संकल्प न तोड़ें और यहां इलाज हो जाएगा। सुंदरलाल जी भी यह बात खुले दिल से स्वीकारते हैं कि पर्यावरण को बचाने के संघर्ष में पत्नी  विमला ने हर कदम पर सहयोग किया है।
पर्यावरण को बचाने के लिए कश्मीर से कोहिमा तक किया सफर
बाद में यही पर पर्वतीय क्षेत्रों में चल रही पेड़ो की कटाई के खिलाफ अभियान में उन्होंने चिपको आन्दोलन को एक नई दिशा दी। लगातार चले इस अभियान के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में एक हजार मीटर से ऊपर की ऊंचाई के क्षेत्रों पर पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने में मदद मिली।  पेड़ों को बचाने के लिए सन् 1981 से 1983 तक कश्मीर से कोहिमा तक पूरे हिमालय की करीब 4867 किलोमीटर की यात्रा भी की थी। बहुगुणा जी साफ कहते हैं कि भविष्य की खेती काष्ठ फल के पेड़ों की खेती है और भविष्य की मिठास है। 1981 में सरकार ने उन्हें पद्ïमश्री देने की बात कही पर उन्होंने यह कहते हुए कि जब तक पेड़ों की कटाई जारी है मैं पुरस्कार नहीं ले सकता सम्मान लेने से इनकार कर दिया। हालांकि उन्होंने वष्र्ष 2009 में पद्म विभूषण का सम्मान स्वीकार कर लिया था। 1984 में उन्हें दशरथ मल्ल सिंघवी राष्टï्रीय एकता पुरस्कार और 1985 में वृक्षमित्र सम्मान समेत जमनालाल बजाज पुरस्कार मिला। 1987 में उन्हें राइट लाइवलीहुड पुरस्कार मिला।
सुंदरलाल जी बताते हैं कि पर्यावरण को बिगाडऩे की शुरूआत तो अंग्रेजों ने की थी। अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिये मात्र इमारती लकड़ी वाले पेड़ लगवाये। उन्होंने प्रकृति के नियमों के विरुद्ध एक सी प्रवृत्ति वाले पेड़ लगवायें सबसे पहले वे ही रेलवे के स्लीपर के लिये हरिद्वार में लकडिय़ां लाये। यूकेलिप्टस पर्यावरण को बचाने में बिल्कुल भी मददगार नहीं है पर इसे लगवाने की कोशिश कितनी खतरनाक है इसका अंदाजा किसी को नही है। इस तरह से हम तबाही की ओर जा रहे हैं। पेड़ों का रोपण ही हमें बचा सकता है।
प्रेस, पार्लियामेंट और पब्लिक ही बचा सकती है पर्यावरण को
पर्यावरण को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं इस पर सुंदरलाल बहुगुणा जी कहते हैं कि पर्यावरण को बचाने में तीन पी यानी प्रेस पार्लियामेंट और पब्लिक की सबसे बड़ी भूमिका है। भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति यानी वनों के बीच पनपी और विकसित हुई है। जब जब वनों का विनाश होगा तब-तब संस्कृति का सत्यानाश होना तय है। हमें लोगों को गांव में ही रोकना होगा। प्रकृति के विनाश की शर्त पर हो रहे विकास का विरोध करना ही होगा।  लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि हमारे राष्ट्रीय नियोजन में तत्काल राहत को महत्व दिया जाता है, क्योंकि हमारी योजनाएं जनता की समस्याओं के कारण पैदा हुए गुस्से को ठंडा करने के दबाव में बनती हैं। विकास के लिए विनाश का रास्ता अपनाया जाता है। जिंदगी के लिए अनिवार्य प्राणवायु और पानी की आपूर्ति तत्कालिक समस्याएं नहीं हैं। ये तो अनादि काल तक बनी रहेंगी। भारत इस मामले में खुशकिस्मत है कि उसके पास हिमालय जैसी विस्तृत पर्वतमाला है। लेकिन अभी तो वहीं के निवासियों की मांग के दबाव में वहां पर मोटर सडक़ों का जाल बिछाया जा रहा है, जिससे जिंदा रहने के तीनों स्थानीय साधनों -जल, जंगल और जमीन- का तेजी से नष्टï हो रहे हैं। प्रेस पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरुक करने पार्लियामेंट में पर्यावरण को बचाने के लिए नियम कानून और पौधे लगाने के लिए पब्लिक को आगे आना ही होगा। हमें जिंदा रहने के नए तरीके खोजने ही होंगे। जल जंगल और जमीन को बचाने के लिए युवाओं को जोरदार संघर्ष करना ही होगा।
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