‘कर्जमाफी समाधान नहीं, कृषि में दीर्घकालिक सुधार की जरूरत’
नई दिल्ली, 21 दिसम्बर (आईएएनएस)| राजनीतिक दल वोट बटोरने के लिए अक्सर चुनावों के वक्त किसानों से कर्जमाफी का वादा करते हैं और चुनाव जीतने पर अपने वादे निभाते भी हैं।
जैसा कि हाल ही में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस पार्टी की जीत के बाद बनी नई सरकारों ने किसानों का कर्ज माफ करने का एलान किया।
इससे पहले भी विभिन्न प्रांतों की सरकारों ने कृषि कर्ज माफ किए हैं। मगर, विशेषज्ञ बताते हैं कि किसानों की दशा सुधारने के लिए कर्जमाफी समाधान नहीं है। वे कहते हैं कि कृषि क्षेत्र में लंबी अवधि के सुधारों की जरूरत है।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी कुछ दिन पहले कर्जमाफी की योजना की आलोचना की थी। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि कर्जमाफी से राजकोषीय घाटा बढ़ता है, इसलिए सरकारों को कृषि क्षेत्र में दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधार करने चाहिए ताकि कर्जमाफी की नौबत ही न आए।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर और अर्थशास्त्री अमित बसोले ने बेंगलुरू से आईएएनएस को ई-मेल के माध्यम से बताया, “भारतीय कृषि क्षेत्र, छोटे/अस्थिर स्वामित्व व सिंचाई और बिजली, विस्तार सेवाएं, भंडारण व परिवहन में अपर्याप्त सार्वजनिक निवेश की दीर्घकालिक संरचनात्मक समस्याओं से जूझ रहा है। इसके अलावा उत्पादों की कीमतों में उतार-चढ़ाव के साथ-साथ बढ़ती लागत, दोषपूर्ण आयात नीति और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर फसलों की खरीद के लिए अपर्याप्त आधारभूत संरचना के कारण परिणामस्वरूप किसानों की आय में संगति नहीं रहती है।”
उन्होंने कहा, “इन समस्याओं को हल कर पाना मुश्किल है और सार्वजनिक संसाधनों के साथ-साथ दीर्घकालिक दृष्टि की प्रतिबद्धता की भी आवश्यकता है। जो कि किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है। लेकिन कृषि संकट से निपटने के लिए उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधार करना होगा। ऋण माफ करना संकेत देता है कि आप किसानों की परवाह करते हैं, लेकिन यह किसी भी दीर्घकालिक समस्याओं का हल नहीं है।”
प्रख्यात अर्थशास्त्री अमित बसोले ने कहा, “ऋण माफ करने से मतलब है कि सरकार (सार्वजनिक) बैंकों का भुगतान करने के लिए अपने पैसे का उपयोग करती है। इससे राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी होती है, अधिकतर राज्य स्तर पर क्योंकि वह राज्य सरकारें हैं जो इन नीतियों का पालन करती हैं।”
उनके अनुसार, यह सच है कि इस धन को करों के माध्यम से वसूला जाता है, जिससे मध्यम वर्ग पर कर का बोझ पड़ता है, लेकिन इसके आर्थिक प्रभाव की तुलना कृषि संकट के सामाजिक प्रभाव से की जानी चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप समाज के गरीब तबकों में व्यापक गुस्सा है। अगर मध्यम श्रेणी के करदाता सरकार पर कृषि क्षेत्र में दीर्घकालिक उपायों के मुद्दे को उठाएंगे तो सरकार पर दबाव जरूर बनेगा।
उत्तर प्रदेश में 2017 में योगी सरकार ने राज्य के 86 लाख किसानों का करीब 30,729 करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया था, वहीं सात लाख किसानों का ऋण जो एनपीए बन गया था, वह भी माफ कर दिया गया। महाराष्ट्र में 35 लाख किसानों का 1.5 लाख रुपये तक का ऋण माफ किया गया था, जबकि पंजाब में कांग्रेस सरकार ने पांच एकड़ तक की खेती की जमीन वाले किसानों के दो लाख रुपये का कर्ज माफ किया था, वहीं कर्नाटक के सहकारी बैंक से लिए गए हर किसान का 50,000 रुपये तक का कर्ज माफ किया जा चुका है और हाल ही में मध्यप्रदेश में प्रत्येक किसान का दो लाख रुपये का कर्जा माफ किया गया है।
यह पूछने पर कि क्या कर्जमाफी से किसानों को प्रोत्साहन मिलता है कि वे बैंक से ऋण लेकर न चुकाएं और अगले चुनाव में कर्जमाफ करने वाली पार्टी को वोट देकर जिताएं ताकि उनका कर्ज माफ हो जाए, बसोले ने कहा, “यह संभव है। हालांकि, गौर करने की बात है कि किसानों में से सबसे गरीब किसान जमींदारों, दुकानदारों से उधार लेते हैं। तो कर्जमाफी का एलान उन पर लागू नहीं होता है।”
राजन ने भी कहा था कि ऐसे फैसलों से राजस्व पर असर पड़ता है और किसान की कर्ज माफी का सबसे बड़ा फायदा सांठगाठ वालों को मिलता है। अकसर इसका लाभ गरीबों को मिलने की बजाए उन्हें मिलता है, जिनकी स्थिति बेहतर है।
कर्जमाफी की नौबत न आए इसके लिए क्या उपाय किए जाएं के सवाल पर प्रोफेसर अमित बसोले ने कहा, “राजनीतिक दलों को दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधार करने चाहिए। उन्हें कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में वृद्धि करनी चाहिए। स्वामीनाथन आयोग ने दस साल पहले विस्तृत सुझाव दिए थे, लेकिन इसके बारे में कुछ भी नहीं किया गया। जब कृषि आय में वृद्धि होगी तो किसान अपने कर्ज चुकाएंगे और कर्जमाफी के लिए बोलेंगे ही नहीं।”