कोसी क्षेत्र में बाढ़ का देसी समाधान जरूरी : दिनेश मिश्र
सुपौल (बिहार), 19 नवंबर (आईएएनएस)| मशहूर बाढ़ और बांध विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र ने हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलने वाले कोसी क्षेत्र में इसके स्थायी समाधान के लिए ठोस राजनीतिक पहल को जरूरी करार दिया है। उन्होंने सरकारी मुलाजिम रहने के दौरान के अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि ‘आम तौर पर बाढ़ के वक्त सरकार खानापूरी में जुट जाती है।’ सुपौल के कालिकापुर में कोसी प्रतिष्ठान की ओर से ‘कोसी के किसान’ विषय पर आयोजित सेमिनार के दूसरे दिन मिश्र ने अपने वक्तव्य में राहत सामग्री के नाम पर एनजीओ की भूमिका पर भी सवाल उठाए और गुजरे दौर की भीषण बाढ़ को याद करते हुए कहा, “जिस तरह से इसका निदान खोजने की कोशिश की जा रही है, उस तरीके में कई खोट हैं।”
उन्होंने कहा कि कोसी नदी से आने वाली बाढ़ भारत और नेपाल के लिए बड़ी राजनीतिक खींचतान का मुद्दा जरूर रहा है, लेकिन दोनों तरफ से इसके स्थायी समाधान की कोशिश कम देखी गई।
दिनेश मिश्र ने बाढ़ से निपटने के लिए देसी समाधानों की पैरोकारी की तो मशहूर पत्रकार अरविंद मोहन ने बाढ़ के वक्त सरकारी महकमा और एनजीओ के बजाय स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाने पर जोर दिया।
उन्होंने कहा कि हर गांव में नाव रखने वाले व्यक्ति को सरकारी अनुदान मिलना चाहिए, ताकि आपदा के वक्त वह स्थानीय लोगों की मदद कर सके। उन्होंने सरकारी योजनाओं को सही तरीके से लागू कराने की जरूरत पर बल दिया।
अरविंद मोहन ने आईसीडीएस और मिड डे मील जैसी योजना की प्रशंसा तो जरूर की, लेकिन ये भी कहा कि मिड डे मील जैसी योजनाओं में ताजा खाना के बजाय पैकेटबंद खाना लागू कराने के लिए बड़ी कंपनियां जोर लगा रही हैं, ताकि वो मोटी कमाई कर सके।
उन्होंने इस बात को सिरे से खारिज कर दिया कि चंद लोगों के अमीर बनने का फायदा देश के बाकी गरीबों को मिलेगा। उन्होंने कहा, “देश में इसके बिल्कुल उलट हालात पैदा हो गए हैं और अमीरों-गरीबों के बीच की खाई और बढ़ती जा रही है।”
अरविंद मोहन ने मनरेगा को गरीबों के लिए अच्छी योजना बताते हुए कहा कि इससे मजदूरी दर बढ़ने में मदद मिली है। यह योजना चलती रहनी चाहिए। इसे बंद करने का प्रयास मानवता पर प्रहार है।
पत्रकार शंभू भद्रा ने कहा कि गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं से गरीबी का उन्मूलन नहीं होगा, बल्कि इसके लिए गरीबों को आत्मनिर्भर बनाए जाने की जरूरत है। उन्होंने कई राज्यों में दशकों तक रहने वाली सरकारों का हवाला देते हुए कहा कि कई राजनीतिक पार्टियों और मुख्यमंत्रियों ने अलग-अलग राज्यों में लंबे समय तक शासन किया और जनता ने उन्हें कई बार मौका दिया, लेकिन इसके बावजूद लोगों की माली हालत पर इसका कोई असर नहीं पड़ा।
इस दौरान युवा शोधार्थी सुजीत कुमार सिन्हा ने कोसी प्रतिष्ठान की तरफ से स्थानीय स्तर पर किए गए सर्वेक्षण के जरिए ये बताया कि किस तरह लोग सरकारी योजनाओं से महरूम हैं। उन्होंने कहा कि सरकार भ्रष्टाचार को ‘योजना लागू करने में हुई देरी’ बताकर टाल देती है।
वहीं, पत्रकार दिलीप खान ने सरकारी योजनाओं में हीला-हवाली को कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के खिलाफ बताया। उन्होंने कहा कि एक तरफ गरीबों के लिए योजनाएं चलाई जाती हैं और ठीक उसी वक्त सरकार गरीबी की परिभाषा बदलकर करोड़ों लोगों को गरीबी के दायरे से ही बाहर निकाल देती है। इस तरह, जिन्हें योजनाओं का लाभ मिलना चाहिए, वो सरकारी बाजीगरी का शिकार होकर इससे वंचित रह जाते हैं।
उन्होंने कहा कि कालिकापुर पंचायत को खुले में शौच से मुक्त घोषित किए जाने के बावजूद 80 फीसदी लोग आज भी खेत-मैदान में शौच जाने को मजबूर हैं। देश के बाकी हिस्सों में भी कमोबेश यही कहानी है। सरकार फर्जी आंकड़ों से बहलाने की रणनीति पर काम कर रही है।
पत्रकार पुष्यमित्र ने आंकड़ों के जरिए ये कहा कि जिस रफ्तार से बिहार में तटबंध बने हैं, उसी रफ्तार से बाढ़ की चपेट में आने वाली जमीन की मात्रा भी बढ़ती गई। उन्होंने तटबंध की उपयोगिता पर कई सवाल उठाए।
पुष्यमित्र ने कोसी को ‘डायन’ या ‘बिहार का शोक’ करार दिए जाने पर आपत्ति जाहिर जताई और कहा कि कोसी किनारे रहने वाले लोगों के मन में कोसी को लेकर इज्जत का भाव है। पुष्यमित्र ने बाढ़ की वजह से आने वाली उपजाऊ मिट्टी समेत मछली पालन में बाढ़ की सकारात्मक भूमिका को भी रेखांकित किया।
पानी के मुद्दे पर लगातार सक्रिय रहने वाले रणजीव ने कहा कि कोसी इलाके में सामाजिक कार्यकर्ताओं की स्वीकार्यता नहीं बनी है। उन्होंने बाढ़ और नदियों को लेकर इलाके में हुए संघर्ष से लोगों को रूबरू कराया। रणजीव ने कहा कि धीरे-धीरे अब जलवायु परिवर्तन का सीधा असर बड़ी आपदा के रूप में देखने को मिलने लगा है।
रामदेव सिंह ने कोसी की बाढ़ की कई यादें सुनाईं और कहा कि सरकार को इस मामले में संजीदगी से काम करना चाहिए।
सेमिनार के आखिरी सत्र में ‘लोक कला, संस्कृति और हस्तकलाएं’ विषय पर विचार रखते हुए रंगकर्मी अकबर रिजवी ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर दिया कि लोक कलाएं विलुप्त हो रही हैं। उन्होंने कहा कि पेशेवर लोक कला समूह जरूर सिमट रहे हैं, लेकिन दौर बदलने के साथ-साथ कलाओं ने भी अपना रूप बदला है और ये पेशेवर होने के बजाय निजी दायरे में और रीति-रिवाजों के रूप में जिंदा है।
वरिष्ठ रंगकर्मी और कवि कुणाल ने मिथिला और खासकर कोसी की कलाओं पर विस्तार से अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि लोक कलाओं के दायरे को और विस्तार देने की जरूरत है।
कवयित्री सुष्मिता पाठक और कवि-कथाकार अरविंद ठाकुर ने भी लोक संस्कृति पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। इस सत्र का संचालन कर रहे कमलानंद झा ने कोसी की समृद्ध कलाओं का हवाला दिया और उम्मीद जताई कि आगे भी ये जिंदा रहेंगी।
इस मौके पर चचíत रंगकर्मी व छोटे पर्दे के अभिनेता राम बहादुर रेणु ने सुरेंद्र स्निग्ध और कुछ अज्ञात कवियों की कोसी से जुड़ी कविताओं का पाठ अभिनय के साथ किया।
दो दिनों से चले इस कार्यक्रम का रविवार को समापन ‘सती कमला’ नाच के साथ हुआ। कालिकापुर में कोसी प्रतिष्ठान की तरफ से इस तरह का यह पहला आयोजन था।
कार्यक्रम के संयोजक व प्रतिष्ठान के चेयरमैन गौरीनाथ ने कहा कि आगे भी इस तरह की मुहिम जारी रहेगी। हिंदी-मैथिली कथाकार और पत्रिका ‘बया’ व ‘अंतिका’ के संपादक गौरीनाथ ने कहा, “आने वाले दिनों में प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक समेत देश के कई नामचीन चित्रकार एक ह़फ्ते तक कालिकापुर में कार्यशाला में हिस्सा लेंगे और यहीं रहकर चित्रकारी करेंगे।”