IANS

झुग्गियों के बच्चों का ‘गॉडफादर’ बन बदलाव लाने में जुटा युवा

नई दिल्ली, 30 सितंबर (आईएएनएस)| 22 साल के एक युवा के मन में एक दिन ख्याल आता है कि क्यों ना कुछ गरीब बच्चों की किस्मत संवारी जाए और इसी एक ख्याल के भरोसे वह कुछ बच्चों की मदद करता है, लेकिन उसे जल्द अहसास होता है कि चंद बच्चों की मदद से काम नहीं बनेगा, बड़ा बदलाव लाना पड़ेगा। आज वही युवक 28 साल का है और दिल्ली की एक झुग्गी के 100 से अधिक बच्चों का जीवन संवार रहा है।

यह शख्स है पीएचडी का एक छात्र ललित यादव, जो एनजीओ ‘संतोष सागर सेवा संस्थान’ के जरिए समाज में बदलाव का सरोकार बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है।

ललित ने इस मुहिम के बारे में आईएएनएस से कहा, मैंने कुछ भी ज्यादा प्लानिंग के साथ नहीं किया। चीजें बस होती चली गईं। साल 2011 की बात है, तब मैं मास्टर्स कर रहा था, उसी समय एक झुग्गी के कुछ टैलेंटेड बच्चों को देखा। उनमें से एक बच्चा गजब का डांस करता था तो सोचा अगर इसे किसी डांस एकेडमी में एडमिशन मिल जाए, तो इसके भविष्य को एक नई दिशा मिल सकती है। यही सोचकर उसका एक डांस एकेडमी में एडमिशन कराया। इन दो-चार बच्चों का खर्चा उठाकर मुझे खुशी मिलती थी, लेकिन मैं इतने से खुश नहीं था। मुझे बड़ा बदलाव लाने के लिए बड़े स्तर पर कुछ करना था, इसलिए गोल मार्किट की एक झुग्गी के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, उन्हें अनुशासन के तौर-तरीके सिखाना शुरू किया।

वह आगे कहते हैं, अगर हम समाज में बदलाव चाहते हैं तो हमें खुद ही बहुत सारी चीजें सुधारने की पहल करनी होगी। मेरे अंदर चाह है कि मैं भीख मांग रहे, चोरी कर रहे झुग्गी के बच्चों को नया जीवन दूं। उन्हें जिंदगी काटना नहीं, जीवन जीना सिखाऊं। तीन बच्चों से सफर शुरू किया था, आज लगभग 100 बच्चों को बुनियादी शिक्षा से लेकर तमाम चीजें सिखा रहा हूं।

ललित छह बार नेट की परीक्षा पास कर चुके हैं। ‘रीड आईएएस’ जैसी संस्था से मिलने वाले वेतन और छात्रवृत्ति के कुल मिलाकर 50,000 रुपये में से 20,000 से 25,000 रुपये इन बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं।

वह कहते हैं, इसमें मेरा कोई स्वार्थ नहीं है। मैं पिछले दो सालों से इन बच्चों को पढ़ा रहा हूं, इस संस्था को मैंने पिछले साल तक रजिस्टर्ड भी नहीं कराया था, लेकिन वॉलेंटियर्स को खुद से जोड़ने और उनके भरोसे के लिए एनजीओ को रजिस्टर्ड कराया। इस काम को दिल्ली की और भी कई झुग्गियों में शुरू करना है, इस इरादे से दिल्ली की कई बस्तियों पर रिसर्च कर चुका हूं और हम बहुत जल्द वहां भी काम शुरू करने जा रहे हैं।

हालांकि, ललित के लिए यह सफर इतना आसान भी नहीं रहा। वह कहते हैं, शुरुआत में काफी दिक्कतें थीं, झुग्गी में जाने पर मेरा पर्स, मोबाइल और बाकी सामान चोरी हो जाता था। बच्चों को अनुशासन के बारे में कुछ पता नहीं था। उन्हें बेसिक चीजें सिखाने में काफी समय लगा। मुसीबतें दोनों तरफ से थी, शुरुआत में लोग भी मेरी इस मुहिम को गंभीरता से नहीं लेते थे, नकारात्मक टिप्पणियां सुनने को मिलती थी, लोग इसे नौटंकी भी बोल देते थे, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। सभी बच्चों का हमने स्कूल में एडमिशन कराया है, सभी स्कूल जाते हैं। तहजीब सीख गए हैं। लोगों ने भी हमारी मेहनत को पहचान लिया है और अब कई लोग खुद से आकर मदद कर रहे हैं।

यह युवा समाजसेवी अध्यापन क्षेत्र में जाने का इच्छुक है, लेकिन चाहता है कि अच्छे लोग विशेषकर युवा राजनीति आएं। वह कहते हैं, मैं खुद राजनीति में जाना नहीं चाहता, क्योंकि मुझे लगता है कि जितना अच्छा काम मैं राजनीति से बाहर रहकर कर पाऊंगा, शायद उतना अच्छा काम राजनीति में जाकर नहीं कर पाऊं, लेकिन फिर भी चाहता हूं कि बड़ी संख्या में अच्छे और नेक युवा राजनीति में जाएं।

ललित कहते हैं, एनजीओ बदनामी के दौर से गुजर रहे हैं। लोगों का एनजीओ से भरोसा उठ गया है, फिर चाहे इसकी वजह एनजीओ के भीतर भ्रष्टाचार हो या एनजीओ के नाम पर भ्रष्टाचार, लेकिन मैंने तय किया है कि मुझे अपने एनजीओ के अच्छे कामों के जरिए एक मिसाल पेश करनी है।

यह जुनूनी युवक कहता है, तम्मना तो यही है कि झुग्गी के इन बच्चों को पहली कतार के बच्चों के बराबर खड़ा कर पाऊं।

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