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जहां पखारे जाते हैं अतिथियों के पांव

नई दिल्ली, 18 अगस्त (आईएएनएस)| जी हां! यह जानकार आपको आश्चर्य हो सकता है, लेकिन यह सच है कि विश्व में मिथिला ही एक ऐसी जगह है, जहां पर अतिथियों का स्वागत करने का अंदाज कुछ अलग है। इस आतिथ्य स्वागत में परंपरा व विज्ञान का गजब का समन्वय है।

जब कोई व्यक्ति किसी के यहां अतिथि के रूप में आते हैं, तो उनके स्वागत में सबसे पहले एक लोटा पानी दिया जाता है। यह लोटा तांबा व कांस्य के धातु का बना होता है, जिसमें भरे पानी से घर आए मेहमान का पांव धोकर स्वागत किया जाता है। इस तरह, दूर-दराज से आए मेहमानों के पांवों को जल से धोया जाता है।

वैसे, पांव धोने की इस परंपरा का एक वैज्ञानिक कारण भी है। चूंकि पांव की नसें सीधे मस्तिष्क से जुड़ी होती हैं, जिससे पांव पर पानी पड़ते ही मस्तिष्क में शीतलता आती है और थकावट दूर होता है। इससे मानसिक शांति की भी अनुभूति होती है।

आतिथ्य सत्कार का यह रूप सदियों पुराना है। कहते हैं कि जब त्रेता युग में भगवान श्रीराम और सीता की शादी हुई थी, तब आज के उत्तर प्रदेश में अवस्थित अयोध्या से काफी संख्या में बारात मिथिला पहुंची तो बारातियों का स्वागत पांव धोकर किया गया था। इसी तरह आज भी मिथिला में जब शादी होती है तो बरातियों के पांव धोने का विशेष इंतजाम किया जाता है।

एक छोटी टेबल या छोटी-सी चौकी होती है, जिस पर बारातियों का पांव रखकर उसे धोया जाता है और फिर उसे तौलिये अथवा गमछे से पोछा जाता है और फिर पुष्प-गुच्छ देकर स्वागत करने की प्रक्रिया का समापन होता है।

उल्लेखनीय है कि यहां चरण धूलि को जल से स्वच्छ करने की क्रिया केवल बारात तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आप आज भी मिथिला के किसी क्षेत्र में पहुंचेंगे तो वहां सबसे पहले जल अर्पित करके ही आपका स्वागत किया जाएगा। यहां जल जीवंतता का परिचायक है और यह मानवीय सबंधों में भी जीवंतता लता है।

दैनिक जीवन में मिथिला के लोग काफी आस्तिक होते हैं। रोज सुबह-सबेरे लोग भगवान की पूजा-अर्चना करके अपने दिन की शुरुआत करते हैं। भक्त भगवान के चरण धोते हैं और उस जल को चरणामृत के रूप में प्रयोग करते हैं। आजकल जब लोग समृद्ध हुए हैं तो चरणामृत के लिए दूध (विशेषकर गाय का) भी का प्रयोग करते हैं।

किसी विशेष पूजा-पाठ में लोग टोली बनाकर भगवान की प्रतीकात्मक मूर्ति के चारों तरफ बैठते हैं और उस मूर्ति को दूध से नहलाया जाता है। इस क्रिया में काफी पवित्रता बरती जाती है। अनुष्ठान में किसी प्रकार की अशुद्धि कल्पना से परे की बात होती है फिर पूजनोपरांत उस चरणामृत का सेवन किया जाता है। आस्तिकता का यह विहंगम श्य आपको शायद ही विश्व के किसी कोने में दिखाई दे।

जब कोई विशेष अतिथि घर आता है तो महिलाएं टोली बनाकर चरण धोने की इस प्रक्रिया के दौरान गीत भी गाती हैं, जैसे- ‘मंगलमय दिन आजु हे, पाहुन छथि आयल।’ मिथिला में अतिथि को पाहुन कहा जाता है। गीतात्मक संवाद मिथिला के रग-रग में बसा हुआ है।

पांव धोने की क्रिया बारात अतिथियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि परिवार के बड़े-बुजुर्ग जब अपने काम से थके-हारे घर लौटते हैं तो उन्हें भी लोटा-भर पानी दिया जाता है। इस पानी से वे पैर धोकर व पानी पीकर अपनी थकावट दूर करते हैं।

पांव धोने की क्रिया में न कोई वर्ग-भेद है और न कोई लिंग-भेद। मिथिला में छोटी बच्चियों को कुमारी (मैथिली शब्द ‘कुमारि’) कहा जाता है, उन्हें जब नवरात्रि या अन्य विशेष अवसरों पर पैर धुलाया जाता है तो उस पानी का प्रयोग लोग अपने घर के छत को सींचने के प्रयोग में लाते हैं। यहां बेटी को भगवती का रूप माना गया है।

मिथिला में जब बेटी की विदाई होती है तो उस समय बेटी के शरीर पर भी शुभता के लिए पानी शिक्त जाता है, जिसे ‘उसरगना’ कहा जाता है। यहां विदाई-गीत विशेष रूप से गाया जाता है, जिसे ‘समदाउन’ कहते हैं- ‘बड़ रे जतन स’ सिया धिया के पोसलहुं सेहो रघुवर लेने जाय’। बेटी की विदाई के समय का श्य अत्यंत कारुणिक होता है।

वाकई धन्य है मिथिला की संस्कृति, जहां ‘अतिथि देवो भव’ वास्तविक रूप से चरितार्थ होता देखा जा सकता है। यह बात सही है कि भगवान किस रूप में दर्शन देंगे, यह कहा नहीं जा सकता। यहां यह कथन शायद इसलिए प्रचलित है कि तेरहवीं सदी में विद्यापति के घर भगवान शिव स्वयं नौकर ‘उगना’ के रूप में अवतरित हुए और उन्हें इसका भान अंत में ही हुआ था।

(लेखक डॉ. बीरबल झा ब्रिटिश लिंग्वा के प्रबंध निदेशक एवं मिथिलालोक फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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