दर्द प्रबंधन को चिकित्सा पाठ्यक्रम में जोड़ा जाना चाहिए
नई दिल्ली, 5 अगस्त (आईएएनएस)| लांसेट कमीशन ने वर्ष 2017 में दर्द से राहत और पैलिएटिव केयर के लिए पाया कि दुनिया भर में 6.1 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य से संबंधित गंभीर पीड़ा (एसएचएस) से गुजरना पड़ता है और इन्हें पैलिएटिव केयर की आवश्यकता होती है। इनमें से कम से कम 1 करोड़ लोग भारत में हैं। लेकिन, देश में केवल 1 से 2 प्रतिशत लोगों को ही ऐसी देखभाल या दर्द प्रबंधन की सुविधा मिल पाती है। हालांकि पैलिएटिव केयर के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है लेकिन मेडिकल के छात्रों को पाठ्यक्रम मंे दर्द प्रबंधन नहीं सिखाया जाता है।
पैलिएटिव केयर का उद्देश्य मरीजों और उनके परिवार के सदस्यों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना है, खास कर तब जब उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं। यह पीड़ा शारीरिक हो सकती है, जैसे सांस लेने में कठिनाई, दर्द, ठीक न होने वाला कोई घाव। मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आध्यात्मिक समस्या भी हो सकती है जैसे अवसाद और सामाजिक अलगाव।
एचसीएफआई के अध्यक्ष डॉ. के.के. अग्रवाल ने कहा, पैलिएटिव एप्रोच वो है जो किसी बीमारी के मुश्किल लक्षणों पर नहीं, बल्कि संभावित उपचारों के संपूर्ण लाभ और साइड इफेक्ट पर भी ध्यान देता है। सबसे बड़ी बात यह कि इस तरह की देखभाल गंभीर, शायद जानलेवा बीमारी से निपटने वाले व्यक्ति के भावनात्मक, शारीरिक और वित्तीय तनाव पर ध्यान केंद्रित करती है। भारत में अभी तक कुछ निजी संस्थानों को छोड़कर कहीं भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि भारत में चिकित्सा व्यक्ति आधारित नहीं रोग आधारित है।
अनुमान बताते हैं कि भारत में हर समय कैंसर के 30 लाख रोगी तो होते ही हैं। अनुमान लगाया जाता है कि इनमें से कम से कम 60 से 80 प्रतिशत लोगों को पैलिएटिव और ‘एंड ऑफ लाइफ केअर’ की आवश्यकता होती है।
आईजेसीपी के ग्रुप एडिटर-इन-चीफ डॉ. अग्रवाल ने कहा, शांतिपूर्ण मौत हासिल करना एक असामान्य इच्छा नहीं है, खासकर टर्मिनल बीमारी वाले लोगों में। कई संस्कृतियां और धार्मिक मान्यताओं में शांतिपूर्ण मौत को बढ़ाने के व्यावहारिक तरीकों की पेशकश की गयी है। मृत्यु की जागरूकता, देखभाल करने वाले माहौल का निर्माण, और जीवनभर की देखभाल को बढ़ावा देना इसी का हिस्सा है।