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जहां शादी में विज्ञान पर दिया जाता है ध्यान

नई दिल्ली, 21 जुलाई (आईएएनएस)| मिथिला की सांस्कृतिक विरासत सदियों से लोगों के लिए कौतूहल का विषय रहा है। आखिर हो भी क्यों न! यहां की अद्भुत सामाजिक परंपरा जो है। यहां के लोग सदियों से शादी-विवाह में वैज्ञानिक पद्धति को अपनाए हुए हैं।

एक तरफ जहां पूरी दुनिया में वैवाहिक जीवन असफल हो रहे हैं, वहीं मिथिला में आज के दौर में भी वैवाहिक जीवन सौ फीसद सफल है। इसका मूल राज यहां के समाज द्वारा वैवाहिक संस्कारों में वैज्ञानिक पद्धति को अपनाना माना जा रहा है।

आज शहरों में मैरेज ब्यूरो या मैचिंग सेंटर के रूप में कई व्यावसायिक संस्थाएं खुल गई हैं जो शादी योग्य वर-वधू को एक दूसरे से जोड़ने का काम करती हैं। पर वह अपने स्तर पर कोई जांच-पड़ताल नहीं करती हैं। वहीं मिथिला में सदियों पहले इस तरह की संस्थाएं थीं जो नि:शुल्क काम कर रही थीं और पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति को अपनाती थी।

आज भी मिथिला में वर-वधू के मातृ व पितृ पक्ष के सात पीढ़ी के बीच रक्त संबंधों का खयाल रखा जाता है। समगोत्री यानी समान रक्त पाए जाने पर शादी नहीं होती है। इसे आज के चिकित्सा विज्ञान ने भी स्वीकार किया है। यह परंपरा मिथिला में आज भी जारी है। इस संस्था को चलाने वाले को मिथिला में पंजीकार कहा जाता है। यानी आज के हिसाब से मैरेज ‘रजिस्टार’ इनके पास सैकड़ों वर्ष का वंशावली दस्तावेज मौजूद है।

इसी दस्तावेज की मदद से वर-वधू के बीच के रक्त संबंधों का पड़ताल करने के बाद शादी की संस्तुति की जाती है, जिसे मिथिला में सिद्धांत कहा जाता है। विवाह से पूर्व वर का स्वास्थ्य परीक्षण किया जाता है। इसे मिथिला में परीक्षण कहा जाता है। इसमें वर के रोगमुक्त होने की जांच की जाती है।

परीक्षण के दौरान वर की नाक दबाई जाती है, जिसका उद्देश्य होता है यह जांचना कि कहीं वर स्वांस व मिर्गी रोग से ग्रस्त तो नहीं है। साथ ही इस दौरान शरीर से वस्त्र भी उतार दिया जाता है। वस्त्र उतारने का मुख्य उद्देश्य होता है चर्म रोग आदि की जांच करना। साथ ही मनोवैज्ञानिक जांच भी की जाती है। इस जांच में वर द्वारा असफल होने पर शादी रोक दी जाती है। इस जांच प्रक्रिया में महिलाओं की अहम भूमिका के साथ ही नाई की भी भूमिका होती है।

परीक्षण में वर के सफल होने के बाद वर-कन्या पक्ष की उपस्थिति में विवाह कार्यक्रम संपन्न कराया जाता है। विवाह में शामिल होने वाले कन्या पक्ष के लोगों को सरियाती व वर पक्ष के लोगों को ‘बरियाती’ कहा जाता है। इन दोनों पक्ष के लोगों का शामिल होना एक तरह से गवाह माना जाता है।

यहां का सामाजिक ताना-बाना इतना मजबूत है कि शादी होने के बाद संबंध विच्छेद की कोई कल्पना भी नहीं की जाती है। कोई ऊंच-नीच होने पर इस विवाह कार्यक्रम में शामिल लोग व घर के बड़े बुजुर्ग ही आपस में बैठकर समस्या का हल कर देते हैं।

वैवाहिक कार्य संपन्न होने के बाद अमूमन एक वर्ष तक नाना प्रकार के अनुष्ठान कार्यक्रम चलते रहते हैं, जिसमें प्रकृति व अग्नि को साक्षी माना जाता है। साथ ही यहां की गीतनाद परंपरा भी अद्भुत है। यहां की परंपरा भी वर-वधू को एक दूसरे से जोड़ने में अहम भूमिका निभाती है। इसे आज के पश्चिमी सभ्यता के हिसाब से हनीमून कहा जा सकता है।

इस दौरान वर-कन्या एक दूसरे से इतने भावुकता से जुड़ जाते हैं कि लगता है कि ये दोनों बने ही एक दूसरे के लिए थे। संबंध विच्छेद की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती।

मिथिलावासी शुरू से ही बहुत उदार रहे हैं। कहा जाता है कि राजा जनक ने सीता को अपने योग्य वर चुनने के लिए ही स्वयंवर बुलाया था। यानी लड़कियों को वर चुनने का अधिकार उस समय में भी मिथिला में था। यानी सदियों से मिथिला महिला सशक्तीकरण का पक्षधर रहा है। यहां कभी लिंग भेद नहीं रहा है। यहां का समाज सहिष्णुता का परिचायक रहा है। दूसरी ओर, आज भी देश के अन्य हिस्सों में ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएं हो रही हैं।

(लेखक डा़ॅ बीरबल झा, ब्रिटिश लिंग्वा के प्रबंध निदेशक हैं)

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