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कम शुक्राणु के बाद भी माता-पिता बनना संभव

नई दिल्ली, 11 जुलाई (आईएएनएस)| स्मिता को उम्र के 36वें वर्ष में मां बनने का सौभाग्य मिला। जीवन के इस सबसे सुन्दर अनुभव को बांटते हुए उन्होंने बताया कि रिसर्च लैब एनालिस्ट 37 वर्षीय उसके पति रवि शुक्राणु अल्पता से पीड़ित थे, और इलाज व अन्य प्रयासों के बाद भी वह पिता नहीं बन पा रहे थे। इसके बाद स्मिता की एक डॉक्टर मित्र ने इन्ट्रासाइटोप्लास्मिक स्पर्म इंजेक्शन (इक्सी) पद्धति से मां बनने का सुझाव दिया, लेकिन इस तकनीक को लेकर उसके मन में कई भ्रांतियां थीं। इस प्रक्रिया को लेकर और बच्चे पर इसके प्रभाव को लेकर कुछ संदेह भी थे। डॉक्टर से बात करने व सही तरीके से समझाने के बाद दंपति ने इक्सी पद्धति को अपनाने का फैसला किया और आज वे एक बेटी के माता-पिता हैं।

इंदिरा आईवीएफ की आईवीएफ विशेषज्ञ, डॉ. निताषा गुप्ता ने बताया, ‘इक्सी’ आईवीएफ की एक अत्याधुनिक तकनीक है। पुरुषों में कम शुक्राणु के कारण ही इस तकनीक का आविष्कार हुआ। इसमें महिला के अण्डों को शरीर से बाहर निकालकर लैब में पति के शुक्राणु से इक्सी प्रक्रिया के द्वारा इन्जेक्ट कर भ्रूण तैयार किया जाता है और फिर इस भ्रूण को महिला के गर्भ में प्रत्यारोपित किया जाता है। इसमें फायदा यह है कि शुक्राणु की संख्या एक से पां मि./एम.एल. होने पर भी इक्सी तकनीक अपनाई जा सकती है। शुक्राणु की कम मात्रा, धीमी गतिशीलता, खराब गुणवत्ता, मृत एवं शून्य शुक्राणु में इक्सी तकनीक कारगर है।

दरअसल, वातावरण में मौजूद प्रदूषण पुरुषों की फर्टिलिटी प्रभावित कर रहा है। महिलाओं में प्रेग्नेंसी के दौरान गर्भपात के पीछे भी यह एक प्रमुख कारण है। जहरीली हवा में सांस लेने की वजह से पुरुषों में शुक्राणुओं के खराब होने और स्पर्म काउंट में कमी आने जैसी समस्याएं भी सामने आ रही हैं। इसके चलते कई बार कोशिश करने के बाद भी गर्भधारण नहीं हो पाता है।

आईवीएफ विशेषज्ञ, डॉ. अरविंद वैद के अनुसार, पुरुषों में फर्टिलिटी कम होती जा रही है। इसका सबसे पहला और प्रमुख संकेत संभोग की इच्छा में कमी के रूप में सामने आता है। स्पर्म सेल्स के खाली रह जाने और उनका अधोपतन होने के पीछे जो मैकेनिज्म मुख्य कारण के रूप में सामने आता है, उसे एंडोक्राइन डिसरप्टर एक्टिविटी कहा जाता है, जो एक तरह से हारमोन्स का असंतुलन है। पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे जहरीले कण, जो हमारे बालों से भी 30 गुना ज्यादा बारीक और पतले होते हैं, उनसे युक्त हवा जब सांस के जरिए हमारे फेफड़ों में जाती है, तो उसके साथ उसमें घुले कॉपर, जिंक, लेड जैसे घातक तत्व भी हमारे शरीर में चले जाते हैं, जो प्रकृति में एस्ट्रोजेनिक और एंटीएंड्रोजेनिक होते हैं। लंबे समय तक जब हम ऐसे जहरीले कणों से युक्त हवा में सांस लेते हैं, तो उसकी वजह से संभोग की इच्छा पैदा करने के लिए जरूरी टेस्टोस्टेरॉन और स्पर्म सेल के प्रोडक्शन में कमी आने लगती है।

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