सत्ता के नाटक का कर्नाटक में खेल
खंडित जनादेश, राज्यपाल का स्वविवेक और लोकतंत्र की परीक्षा ऐसा ही कुछ माहौल कर्नाटक में चुनाव नतीजों के बाद दिख रहा है। नतीजों के मायने क्या कहें कांग्रेस मुक्त भारत या नए गठबंधन युक्त राजनीतिक संभावनाएं? इतना जरूर है कि इंदिरा गांधी ने राजनीति में जो पहचान बनाई थी उसे वो उतार-चढ़ाव के बावजूद 4.5 दशक तक बरकरार रख पाईं तो क्या नरेन्द्र मोदी की पहचान वैसी ही राजनीति की नई पैकेजिंग तो नहीं? सवाल कई हैं और जवाब भी समय के साथ मिलता जाएगा।
फिलाहाल कर्नाटक की सियासी तस्वीर काफी दिलचस्प हो गई है। गेंद राज्यपाल के पाले में है। वह सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए बुलाते हैं या बहुमत का आंकड़ा पार कर चुके कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन को? गोवा, मेघालय और मणिपुर की थोड़ा पहले की सियासी तस्वीरों की नजीर सामने है। जिन हालातों में राज्यपालों ने बहुमत वाले गठबंधन को वहां सरकार बनाने का न्योता दिया, क्या वैसा ही न्योता कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन को यहां मिलेगा या सबसे बड़े दल भाजपा को? जेडीएस-कांग्रेस की साझा सीटें बहुमत के पार हैं यहां भी दावा मजबूत है। ऐसे में राज्यपाल चाहें तो बहुमत के आंकड़े को देखते हुए कांग्रेस-जेडीएस को भी सरकार बनाने का मौका दे सकते हैं।
अब यहीं इंतजार करना होगा, लेकिन कर्नाटक के ही पूर्व मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई बनाम केंद्र सरकार का एक अहम मामला नजीर बन सकता है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय आदेश दे चुका है कि बहुमत का फैसला राजनिवास में नहीं बल्कि विधानसभा के पटल पर होगा। कई तरह के तर्को से हटकर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार बनाने का न्योता देने का अधिकार राज्यपाल को उनके विवेक पर छोड़ रखा है। राज्यपाल चुनाव से पहले या बाद में बने गठबंधन को भी न्योता दे सकते हैं लेकिन संतुष्ट हों कि वह सदन में बहुमत साबित करेगा।
राज्यपाल का फैसला गलत भी हो सकता है फिर भी उनसे यह अधिकार छीना नहीं गया है। हां बहुमत सदन में ही साबित करना होगा। जस्टिस आरएस सरकारिया कमिशन ने विकल्पों और उनकी प्राथमिकताओं को साफ किया है लेकिन साथ ही राज्यपाल के खुद के फैसले को भी अहम बताया है। संविधान में गठबंधन सरकार बनने पर राज्यपाल को कैसे मुख्यमंत्री की नियुक्ति करनी है, इस बारे में कुछ साफ नहीं है।
कर्नाटक के नतीजे सभी दलों के लिए काफी सबक देने वाले हैं क्योंकि शुरू में लगा कि भाजपा स्पष्ट बहुमत की ओर अग्रसर है लेकिन बाद में 104 पर ही अटक गई। जबकि कांग्रेस दूसरे और जेडीएस तीसरे नंबर रह गई। प्रधानमंत्री ने सबसे ज्यादा 21 जन सभाएं कर्नाटक में की थीं वहीं अमित शाह ने पूरी ताकत झोंक दी थी। वोट शेयर के मामले में कांग्रेस जीतकर भी हार गई और भाजपा हारकर भी जीत गई। भाजपा और कांग्रेस के बीच मत प्रतिशत क्रमश: 37 प्रतिशत और 38 प्रतिशत है।
हां, कर्नाटक में ही इतिहास फिर खुद को दोहरा रहा है। लगभग 2004 वाली स्थिति है। उस वक्त भाजपा को 79, कांग्रेस को 65 और जेडीएस को 58 सीटें मिली थीं। कांग्रेस एसएम कृष्णा को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी जबकि देवगौड़ा एन धरम सिंह को। तब भी कांग्रेस को झुकना पड़ा था। यकीनन देवगौड़ा का ठीक वैसा ही दांव 2018 के इस चुनाव में दिखा जब उन्होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों को चित्त कर दिया। इस चुनाव में फिर रोचक स्थिति बनी कि राजनीति में कोई दुश्मन या दोस्त नहीं होता है। याद कीजिए 2005 में कुमार स्वामी से मतभेदों के कारण ही सिद्धारमैया पार्टी से निकाले गए थे लेकिन हालात देखिए 12 साल बाद उन्हीं सिद्धारमैया ने अपने राजनैतिक विरोधी का नाम मुख्यमंत्री के लिए आगे किया।
फिलाहाल कर्नाटक नतीजों को 2019 का सेमीफाइनल कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि अभी सबसे अधिक सांसद देने वाले उप्र के कैराना में 28 मई को होने जा रहे उपचुनाव में नए फार्मूले की टेस्टिंग होगी। यहां सपा-बसपा के बजाय अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के चिन्ह पर सपा उम्मीदवार तबस्सुम का लड़ना और बसपा का समर्थन करना बड़ा पैंतरा है। निश्चित रूप से यह जहां भाजपा को परेशान करने वाला है वहीं 2019 के आम चुनाव के लिए गठबंधन की नई संभावनाओं का दरवाजा भी खोलता दिख रहा है। लेकिन मप्र और राजस्थान में हुए उपचुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता के बाद कर्नाटक के नतीजों ने मंसूबों पर पानी फेर दिया है।
साल के आखिर में मप्र, राजस्थान, छग में विधानसभा चुनाव हैं और यहां भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस जोश में थी। यकीनन कांग्रेस का मनोबल गिरा होगा क्योंकि तीनों राज्यों में मुख्य विपक्षी भूमिका में वही है। साथ ही गठबंधन के लिहाज से तीनों राज्यों की राजनैतिक पैंतरेबाजी भी जुदा है। ऐसे में तीनों राज्य में अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा देश की गठबंधन राजनीति में निश्चित रूप से बेहद उलझा और नाजुक होगा। फिलहाल कर्नाटक के नाटक पर सबकी नजर है।