सौड़ : पहचान खो चुके गांव की दोबारा आबाद होने की कहानी
उत्तराखंड के भुतहा होते जा रहे गांवों को फिर से बसाने की कोशिश
सौड़ गांव में मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण लिपि रमोला ( 22 वर्ष) का परिवार भी गांव के दूसरे कई परिवारों की तरह देहरादून पलायन कर गया था। लेकिन लिपि ने यह कभी नहीं सोचा था कि जिस गांव को उनका परिवार 55 साल पहले छोड़कर दूसरी जगह बस गया था, वो उसी गांव में 20 साल बाद पढ़ाने जाएंगी।
लिपि को उनके पुश्तैनी गांव को देखने का मौका पहली बार तब मिला, जब उन्हें ‘ प्रोजेक्ट फ्यूल ‘ संस्था के सौड़ फैलोशिप प्रोग्राम के अंतर्गत सौड़ गाँव के बच्चों और महिलाओं को अंग्रेज़ी और कम्प्यूटर पढ़ाने भेजा गया। लिपि ने बताया, ”मैं सौड़ गांव की होने के बावजूद 20 साल तक अपने गाँव नहीं गई थी। पापा कभी – कभी गांव जाते थे, लेकिन पढ़ाई के दौरान मैं अपने गांव नहीं जा पाई। मुझे सितंबर 2017 में प्रोजेक्ट फ्यूल के सौड़ प्रोग्राम में पढ़ाने का मौका दिया गया, तब मैंने अपने गाँव को पहली बार देखा। यह मेरे लिए बहुत बड़ा लम्हा था।”
उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल अंचल में मसूरी-धनोल्टी मार्ग पर बसे सौड़ गांव में मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण पिछले आठ दशकों से लोगों का पलायन इस कदर तेज़ी से हुआ कि गांव पूरी तरह से सूनसान हो गया। हालत यह थी कि सौढ़ गांव में बचे गिनती भर लोग, गांव की खमोशी से डरने लगे थे, लेकिन इस गांव की खामोशी तब दूर हो गई, जब पिछले साल जून के महीने में चंद लोगों की एक छोटी सी टीम ने गाँव में फिर से खुशियां वापस ला दी।
”जून 2017 में हमने सौड़ गांव में वाइज़वॉल प्रोजेक्ट चलाया। इस प्रोजेक्ट में हमारी टीम ने गांव के कुछ परिवारों के साथ मिलकर पुराने घरों की दीवारों पर पेंटिंग की। इसके बाद सितंबर में हमने इसी गाँव में सौड़ फैलोशिप प्रोग्राम शुरू किया, जिसमें हमने बाहरी लोगों को गांव के बच्चों और महिलाओं को इंग्लिश और कम्प्यूटर पढ़ाने भेजा। इसी दौरान हमने सौड़ गाँव से पलायन कर चुके कुछ परिवारों और अपने मेहमानों के साथ मिलकर वहीं पर घोस्ट विलेज फेस्टिवल मनाया।” प्रोजेक्ट फ्यूल के संस्थापक दीपक रमोला ने बताया।
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ रूरल डेवलपमेंट और पंचायतीराज मंत्रालय द्वारा किए गए सर्वेक्षण ‘ उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों का पलायन ‘ के मुताबिक पहाड़ी गांवों में रोजगार के अवसर कम होने के कारण 47.06 प्रतिशत लोगों ने अपने गाँव से पलायन किया है। ऐसे में प्रोजेक्ट फ्यूल जैसी संस्थाएं उत्तराखंड के भुतहा होते जा रहे गांवों को फिर से आबाद करने में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।
दीपक आगे बताते हैं कि घोस्ट विलेज फेस्टिवल की मदद से हमने गांव छोड़ चुके लोगों को यह एहसास दिलाया कि भले ही वो वर्षों पहले अपना गांव छोड़ चुके हों, लेकिन गांव में बने उनके पुश्तैनी घर अब भी उनकी यादों को अपने साथ ले कर जी रहे हैं। हमने गांववालों से उनकी कहानियों और किस्सों को पूछकर उनके पुराने घरों पर पेंटिग्स बनाई और खूब मौज-मस्ती की।
घोस्ट विलेज फेस्टिवल में प्रोजेक्ट फ्यूल का साथ उत्तराखंड की हंस फाउंडेशन नामक संस्था ने दिया। दोनो संस्थाओं ने साथ मिलकर सौड़ गांव में रहने वाले लोगों द्वारा बनाए गए हैंडीक्राफ्ट और ग्रह उत्पादों की बिक्री के लिए खास मेले का भी आयोजन किया। इसके अलावा गांव की पुरानी लोककलाओं (पांडव नृत्य) को दोबारा जीवित करने के लिए फोक डांस कार्यक्रम भी किया।
हंस फाउंडेशन के प्रोग्राम मैनेजर कृष्णा त्रिवेदी ने बताया, ”उत्तराखंड के गांवों में तेज़ी से हो रहे लोगों के माइग्रेशन से गांव खाली होते जा रहे हैं, यह उत्तराखंड के लिए अच्छी बात नहीं है। घोस्ट विलेज फेस्टीवल में गांव में रह चुके लोगों को रोचक ढंग से यह बताने की कोशिश की गई कि भले ही वो उस गाँव में अब नहीं रहते हों, लेकिन वो अपने घरों को खंडहर होने से बचा सकते हैं। इसके लिए वो समय-समय पर अपने गाँव आकर घरों में छुट्टियां ज़रूर बिताएं।”
उत्तराखंड के गढ़वाल हिस्से के सौड़ गांव को आबाद करने के बाद प्रोजेक्ट फ्यूल कुमाऊं मंडल के पिछड़े गांव ‘खाटी’ में भी वाइज़वॉल मुहिम चला चुका है। आने वाले समय में प्रोजेक्ट फ्यूल अपने इस अभियान को दूसरे गांवों तक पहुंचाने की कार्ययोजना बना रहा है।
लिपि प्रोजेक्ट फ्यूल को धन्यवाद देते हुए कहती हैं, ”मैं बहुत खुशनसीब हूं कि प्रोजेक्ट फ्यूल ने मुझे अपने गांव में जाने का मौका दिया। वहां काम करते हुए मैंने अपने पुराने मकान को देखा, जो मेरे दादा जी किसी और को बेच कर देहरादून चले आए थे।” मुस्कुराते हुए वो आगे बताती हैं कि आज मैं बहुत खुश हूं कि मैंने उस घर को फिर से खरीद लिया है।