दावोस में मोदी-ट्रंप, खंडित दुनिया को देंगे मंत्र
‘खंडित दुनिया में साझा भविष्य के निर्माण’ की खातिर, इस बार ‘विश्व आर्थिक मंच’ स्विटजरलैंड के दावोस में मंथन करेगा। 1971 में गठित संगठन की यह 48वीं बैठक जरूर होगी लेकिन मकसद वही यानी दुनिया के तमाम देशों और उनकी ताकतों के बीच बेहतर तालमेल से मजबूत माहौल बने।
बड़ी राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक चुनौतियों का सभी मिल जुलकर मुकाबला कर सकें और दुनिया का माहौल सकारात्मक हो। 400 से अधिक बैठकों के होने वाले दौर में 100 से ज्यादा देशों के 2500 से अधिक प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे।
‘विश्व आर्थिक मंच’, समुदायों और संगठनात्मक क्षमता के साथ 14 विशेष प्रयासों से सकारात्मक बदलाव हेतु इस बार जुटेगा। इसमें ग्लोबल एजेंडा के तहत वैश्विक प्रशासन तंत्र को सुधारने और प्रमुख बहुपक्षीय योजनाओं को बढ़ाने की कोशिशें होंगी।
भू-राजनीतिक एजेंडा के तहत नेताओं और विशेषज्ञों को तैयार करने और तेजी से बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य के लिए तैयारी और रणनीति। आर्थिक एजेंडा में कम विकास दर के मुकाबले टिकाऊ और समावेशी आर्थिक विकास प्रदान करने के लिए बहुस्तरीय प्रयासों को बढ़ाने तथा उत्पादकता में कमी के लिए कौशल के अंतर को कम करना। क्षेत्रीय एजेंडा में सभी क्षेत्रों में होने वाली सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों की गहराई में जांच करना।
उद्योग-व्यापार एजेंडा के तहत नए उद्योग के लिए परिस्थियां निर्मित कर चौथी औद्योगिक क्रांति की तैयारी करना तथा भावी एजेंडा में विचारों, नवाचारों और खोजों को साझा करना है ताकि वैश्विक प्रणालियों का प्रभावी पुनर्निर्धारण हो सके। इस बैठक में जहां डोनाल्ड ट्रम्प सन 2000 में बिल क्लिंटन के बाद भाग लेने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति होंगे वहीं नरेन्द्र मोदी, 1997 में एचडी देवगौड़ा के बाद शामिल वाले दूसरे प्रधानमंत्री होंगे।
अब शीत युद्ध वाला वो जमाना नहीं रहा जब तमाम देश, दुनिया में पॉवर सेंटर रहे अमेरिका और रूस की ओर निहारते थे। बदले दौर में चीन, जापान, कोरिया, इजरायल जैसे देश बड़ी सैन्य या आर्थिक या दोनों ताकतों के रूप में उभरे हैं वहीं भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। यह बात अलग है कि गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक एकजुटता की कमी के चलते हमारी तरक्की दिखती नहीं है। वहीं आतंकवाद के चलते कई मुस्लिम देश ईरान, सऊदी अरब और अमेरिका के बीच की राजनीति में झुलस रहे हैं। पड़ोसी पाकिस्तान ही कभी अमेरिका तो कभी चीन की कठपुतली दिखता है।
निश्चित रूप से इस बेहद बदले दौर में ‘विश्व आर्थिक मंच’ की भूमिका भी बहुत खास हो गई है। कई शासन प्रणालियां भी नई-नई और बदली हुईं हैं लेकिन सभी चाहते हैं कि दुनिया एक हो और उनके नागरिक तरक्की करें तथा पूरा विश्व एक सामाजिक गठबंधन की गांठ में बंध जाए। यह दौर संधारणीय यानी टिकाऊ विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेण्ट) का है जिसमें विकास की नीतियां बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि इंसान की न केवल मौजूदा जरूरतों की पूर्ति हो वरन अनन्त काल आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा भी सुनिश्चित हो।
दावोस में निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी भारत की तेज रफ्तार वृद्धि, मौजूदा बेशुमार अवसरों, विश्व बैंक के ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में भारतीय रैंकिंग जिसने 30 से 100 की ऊंची छलांग लगाई, दुनिया के निवेशकों के सामने रखेंगे। शायद यह भी बताएं कि भारत में निवेश और व्यवसाय पहले से काफी आसान हुआ है। नौकरशाही और लालफीताशाही में काफी कमी आई है तथा जीएसटी और दूसरे आर्थिक सुधारों के कारण आने वाले चन्द सालों में भारत टॉप 50 देशों में पहुंच जाएगा। वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकी व्यवसायों, उद्योगों और श्रमिकों को मजबूत करने के लिए अपने ‘अमेरिका पहले’ के एजेंडे को बढ़ावा देंगे।
1971 में यूरोपीय प्रबंधन के नाम से इस फोरम की स्थापना जर्मन अर्थशास्त्री क्लॉस एम श्वाब और उनकी पत्नी हिल्ड ने श्वैब फॉउण्डेशन फॉर सोशल एन्टर्प्ेन्योरशिप के रूप में की थी। इसमें प्रो.श्वाब ने यूरोपीय व्यवसाय के 444 अधिकारियों को अमेरिकी प्रबंधन से मुखातिब कराया। 1987 में इसका नाम ‘विश्व आर्थिक मंच’ किया गया और तब से अब तक, प्रतिवर्ष जनवरी में दावोस में इसकी बैठक होती है।
पहले प्रबंधन के तरीकों पर चर्चा होती थी। जब 1973 में कई देश अलग होने लगे और अरब-इजराइल युद्ध के कारण बैठक का ध्यान आर्थिक और सामाजिक मुद्दों की ओर गया और पहली बार राजनीतिज्ञों को बुलाया गया। यह एक तटस्थ मंच के रूप में इस्तेमाल हुआ। 1988 में ग्रीस और तुर्की ने यहीं आपसी युद्ध को टालने की घोषणा की। 1992 में रंगभेद नीति से इतर, पहले अश्वेत दक्षिण अफ्ऱीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला भी जुड़े। 1994 में इजराइल और फिलीस्तीन ने आपसी सहमति के मसौदे पर यहीं मुहर लगाई।
आज वैश्विक संबंध यानी ‘ग्लोबल रिलेशन्स’ के मायने बदल गए हैं। बदले हुए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिणामों के बीच समावेशी विकास को सुरक्षित रखने, दुर्लभ संसाधनों को बचाने, सामूहिक विफलता से जूझने के खातिर सहयोग के नए मॉडल विकसित करना पहला प्रयास है, जहां संकीर्णता न हो बल्कि पूरी तरह से मानवता के सुखद भविष्य के लिए हो। ऐसे में ‘क्रिएटिंग ए शेयर्ड फ्यूचर इन ए फ्रैक्च र्ड वल्र्ड’ की परिकल्पना ही बेहद रोमांचित करती है काश हकीकत यही हो जाए तो कितना सुखद और सुन्दर होता! (आईएएनएस)