अनवर जलालपुरी का जाना : एक युग का अंत (श्रद्धांजलि)
लगभग चार दशक तक प्रभावशाली शायरी और अपने उद्बोधन के जरिये हिंदुस्तान के अलावा उसकी सरहद के पार दुनिया के तमाम देशों में अपनी माटी का नाम रोशन करने वाले इस साहित्य के पुरोधा ने उर्दू शायरी में ‘गीता’ लिखकर अमरत्व प्राप्त कर लिया।
प्रख्यात संत पल्टू दास की सरजमीं पर जन्मे और पले-बढ़े अंग्रेजी के विद्वान और उर्दू व अरबी के ज्ञाता अनवर जलालपुरी ने संत पल्टू दास की रचना- ‘डाल डाल पर अल्लाह लिखा है पात पात पर राम’ से प्रेरित होकर सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने का जो बीड़ा उठाया था, उसे आजीवन बखूबी ढोते रहे।
जब हिंदुस्तान की सरजमीं पर गुलामी छटपटा रही थी और आजादी मिलने में महज एक माह नौ दिन का समय शेष था, तब जलालपुर कस्बे में हाफिज मोहम्मद हारून के पुत्र के रूप में 6 जुलाई, 1947 को जन्मे अनवर जलालपुरी वास्तव में विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। प्राथमिक शिक्षा स्थानीय स्तर पर ग्रहण करने के बाद उन्होंने गोरखपुर विश्व विद्यालय से 1966 में अंग्रेजी, अरबी और उर्दू विषय के साथ स्नातक किया और 1968 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए और अवध विश्व विद्यालय से उर्दू में एमए और जामिया मिल्लिया (अलीगढ़) से अदीब कामिल की डिग्री हासिल करने के बाद परूइया आश्रम सहित कई शिक्षण संस्थानों में प्राइवेट शिक्षक के पढ़ाया।
अनवर बाद में जलालपुर के नरेंद्र देव इंटर कॉलेज में, जहां का कभी छात्र हुआ करते थे, वहीं अंग्रेजी लेक्चरर नियुक्त हुए। उसके बाद ही उनके जीवन में स्थायित्व आया और यहीं से जागृत हुआ उनके अंदर के अदब का विरवा, जो विशाल बटवृक्ष का रूप ले लिया।
जलालपुरी के अंदर का साहित्य मेगा सीरियल ‘अकबर द ग्रेट’ में उभरकर सामने आया। उन्होंने इस प्रख्यात सीरियल के लिए गीत और संवाद लेखन का कार्य 1996 में किया। इसी के साथ हिंदी फिल्म ‘डेढ़ इश्किया’ में नसीरूद्दीन शाह और माधुरी दीक्षित के साथ शायर और मंच संचालक की भूमिका निभाकर सोहरत बटोरी। सोहरत का यह सिलसिला अनवर जलालपुरी के जीवन के साथ चलता रहा।
पिछले 40 वर्षो से राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर होने पर कवि सम्मेलनों और मुशायरों के अनवर जलालपुरी आवश्यक अंग हुआ करते थे। अरब राष्ट्रों में स्थित भारतीय दूतावासों में आयोजित मुशायरों का संचालन अनवर जलालपुरी के बिना फीका पड़ जाता था।
उन्होंने अमेरिका, कनाडा, पाकिस्तान, इंग्लैंड सहित अरब राष्ट्रों में भारतीय मूल के नागरिकों द्वारा आयोजित सहित्यिक सम्मेलनों का संचालन कर अपने देश का नाम ऊंचा किया। नरेंद्रदेव इंटर कॉलेज के अंग्रेजी प्रवक्ता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद लखनऊ में रहकर इस शायर ने जब हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ ‘गीता’ का काव्यात्मक अनुवाद उर्दू में किया, तो देश के साहित्य जगत में एक नई चर्चा छिड़ गई। इस महान कार्य के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उन्हें यश भारती पुरस्कार प्रदान किया था।
अनवर जलालपुरी ने ‘तोश-ए-आखिरत’, ‘उर्दू गीतांजलि’, ‘रूबाइयात-ए-खय्याम’, ‘जागती आंखें’, ‘खुशबी की रिस्तेदारी’, ‘खारे पानियों का सिलसिला’, ‘रोशनाई के सफीर’, ‘अपनी धरती अपने लोग’, ‘जरबे लाइलाह’, ‘जमाले मोहम्मद’, ‘बादअज खुदा’, ‘अरफे अब्जद’, ‘राहरौ से रहनुमा तक’ जैसी कृतियां साहित्य जगत को दी हैं।
इसके अलावा उन्होंने ‘अदब के अक्षर’, ‘कलम का सफर’ और ्न’सफीराने अदब’ भी लिखा। अनवर को अदब यानी साहित्य के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट कार्यो के लिए उत्तर प्रदेश गौरव, फिराक सम्मान, माटी रत्न सम्मान सहित दर्जनों सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। उन्होंने सिर्फ साहित्य के क्षेत्र में ही काम किया हो, ऐसा नहीं है, बल्कि जलालपुर में मिर्जा गालिब इंटर कॉलेज की स्थापना कर शिक्षा की लौ भी जलाई है। इस कॉलेज के वह संस्थापक प्रबंधक रहे हैं।
इस योग्य और महान साहित्य-शिल्पी का महत्व पिछली बसपा सरकार में भी समझा गया था। तब उन्हें उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद का चेयरमैन बनाते हुए राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया था, लेकिन उन्होंने साहित्य के आगे सियासत को हमेशा बौना ही समझा।
वास्तव में, अनवर जलालपुरी व्यक्ति विशेष का नहीं, विचारों के एक पुंज का दूसरा नाम है। उनके व्यवहार में भी साहित्य का भरपूर समावेश हर समय देखा जा सकता है। पहली ही मुलाकात में गैरों के भाई बन जाने और गैरों को अपना बना लेने की कला उनके अंदर कूट-कूट कर भरी थी।
मेरा करीब एक दशक का समय उनके सान्निध्य में बीता है, इसलिए मैं यह बात अत्यंत विश्वास के साथ कह सकता हूं कि जिसने अनवर जलालपुरी को समझ लिया, उसने साहित्य और अध्यात्म के गूढ़ रहस्य को समझ लिया।
बीते दिनों उन्हें ब्रेन हेमरेज होने के बाद लखनऊ स्थित मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया था। वहां इलाज के दौरान 2 जनवरी, 2018 को सुबह लगभग 10 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली।
अनवर जलालपुरी का जीवन एक पेचीदा किताब था, जिसे पढ़ना तो आसान था, मगर समझना बहुत कठिन। उनके अचानक रुखसत होने से भारतीय साहित्य को एक गहरा आघात लगा है, जिसकी भरपाई शायद कभी नहीं हो पाएगी। (आईएएनएस/आईपीएन)
(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं)