उत्तराखंड में आतिशबाजी नहीं लकड़ी जलाकर मनाया जाता है दीपावली का जश्न
उत्तराखंड। उत्तराखंड में दीपावली के जश्न में पूरा राज्य डूबा हुआ है। उत्तराखंड के कुछ इलाकों में पुरानी परम्परा के तहत दीपावली का जश्न मनाया जाता है। इस परम्परा में आतिशबाजी का कोई खास रोल नहीं होता बल्कि लकड़ी जलाकर दीपावली का जश्न अनोखे तरीके से मनाया जाता है।
दीपावली को कई रूप में देखा जाता है। उत्तराखंड में गढ़वाल हो या कुमाऊं दीपावली उत्सव उत्तराखंड में जमकर मनाया जाता है। दीपावली का जश्न उत्तराखंड में तीन दिन चलता है।
उत्तराखंड में अतीत में दीपावली के दिन भैलो खेलने की भी परंपरा रही, जो आज उत्तराखंड में कई जगहों पर जिंदा है। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में दीपावली को मनाने का अनोखा तरीका है। कनिष्ठ बग्वाल, ज्येष्ठ बग्वाल और मझिली बग्वाल यहां मनाई जाती है। बड़ी दिवाली से 11 दिन बाद देवोत्थान (देवउठनी) एकादशी के दिन एक दिवाली मनाई जाती है, जिसे कई जगह ‘इगास-बग्वाल के नाम से जाना जाता है।
उत्तराखंड में उत्तरकाशी, टिहरी, चमोली और रुद्रप्रयाग जिले के कई गांवों में आतिशबाजी का चलन नहीं है बल्कि यहां बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। खासकर बड़ी बग्वाल के दिन यह मुख्य आकर्षण है। बग्वाल वाले दिन भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। इसे भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। इसे तैयार करने के लिए रस्सी में चीड़ की लकडिय़ां की छोटी-छोटी गांठ बांध ली जाती है।
इसके बाद इसे ऊंचे स्थान पर रखा जाता है और वहां भैलो को आग लगाकर दीपावली का जश्न मनाया जाता है। इसमें लोग खूब नृत्य भी करते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है।