राष्ट्रीय

सुरक्षा परिषद के फैसलों में योगदान देने वालों को मिले जगह : भारत

संयुक्त राष्ट्र, 5 अक्टूबर (आईएएनएस)| विश्वशांति बहाल करने में जिन देशों के सैनिक अपनी जान गवां रहे हैं, उनके लिए भारत ने सुरक्षा परिषद में अहम स्थान की मांग की है।

उसका कहना है कि ऐसे देशों को संस्था की नीति-निर्माण प्रक्रिया में वाजिब जगह दी जानी चाहिए।

भारत के संयुक्त राष्ट्र अभियान के रक्षा सलाहकार कर्नल संदीप कपूर ने कहा कि मौजूदा व्यवस्था के तहत, शांति प्रक्रिया में सैनिकों और पुलिस का योगदान करने वाले देशों को सुरक्षा परिषद की नीति निर्माण प्रक्रिया से दूर रखा जाता है। यदि ऐसे देशों को शुरुआत से निर्णय प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता, तो यह व्यवस्था टिकाऊ नहीं है।

मंगलवार को शांति सुधारों पर सुरक्षा परिषद कार्यकारी समूह की अहम बैठक आयोजित की गई। इसी में विभिन्न देशों के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करने के लिए कर्नल कपूर ने अपनी बात रखी।

फिलहाल दुनिया में शांति बहाल करने के लिए जो आदेश जारी किए जाते हैं, उन पर सुरक्षा परिषद ही फैसले लेती है। जो देश शांति प्रक्रिया में सैनिकों और पुलिस का योगदान करते हैं, उन्हें बिना बताए इन निर्णयों में फेरबदल कर दी जाती है। लिहाजा, ये देश आदेशों का क्रियान्वयन करने के लिए बाध्य होते हैं। सभी फैसले सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों द्वारा ही लिए जाते हैं, जबकि शांति बहाली में ये सैनिकों का खास योगदान नहीं देते।

हालांकि हाल-फिलहाल में चीन ने इसमें अपनी भूमिका में विस्तार किया है।

कपूर ने कहा, यह विडंबना ही है कि सुरक्षा परिषद के आदेशों का पालन करने के लिए सैनिक और पुलिस के रूप में योगदान करने वाले देशों और इन फैसलों के क्रियान्वयन के लिए जान गंवाने वाले सैनिकों को इनमें शामिल नहीं किया जाता।

ऐतिहासिक रूप से विश्वशांति में भारत का सबसे अधिक योगदान रहा है। इसके तहत करीब दो लाख भारतीय संयुक्त राष्ट्र के 50 अभियानों में काम कर रहे हैं। इनमें से तकरीबन 168 ने अभियान के तहत अपनी जान गंवाई। शांति बहाली के सैन्य अभियानों में सैनिकों के योगदान में भारत का दुनिया में तीसरा स्थान है। उसके 7,049 सैनिक इस काम में लगे हुए हैं।

पिछले कुछ वर्षो में शांति अभियानों में काफी बदलाव हुआ है। इस काम के लिए शांतिदूतों को गैर-सदस्य देशों और आतंकवादियों से जूझना पड़ता है। नागरिकों पर आंच न आए, इसके लिए इन्हें बेहद सावधान रहना पड़ता है। साथ ही वह सीमित बल प्रयोग ही कर सकते हैं।

कर्नल कपूर ने दो उदाहरणों के जरिए अपनी बात रखी। उन्होंने बताया कि कांगो गणराज्य का यूएन ऑर्गनाइजेशन स्टेबलाइजेशन अभियान और दक्षिण सूडान का यूएन अभियान इस लिहाज से बेहद कठिन रहा है।

उन्होंने कहा कि बीते अगस्त आदेशों में अचानक बदलाव किया गया। परिषद ने सैन्य योगदान करने वाले देशों से सलाह किए बिना वहां 4,000 सैनिक बल वाली रीजनल प्रोटेक्शन फोर्स (आरपीएफ) तैनात करने का फैसला किया। नतीजतन, उसका फैसला बेअसर रहा। साथ ही आरपीएफ की तैनाती भी नहीं हो सकी।

कर्नल कपूर ने बताया कि कांगो गणराज्य में संयुक्त राष्ट्र शांति बहाली का सबसे लंबा अभियान चला रहा है। यह मोनूको से 1999 में शुरू हुआ। 2010 में यह मोनुस्को में बदल गया, जिसका मकसद इस देश में स्थायित्व लाना था। इसके बावजूद फिलहाल वहां 20 सशस्त्र संगठनों का संचालन हो रहा है।

उन्होंने कहा, सुरक्षा परिषद ने मोनुस्को अभियान की मियाद बढ़ाकर 31 मार्च 2018 कर दी है। साथ ही सैनिकों की संख्या में 3,600 की कटौती भी की जानी है। हालांकि वहां की राजनीतिक और सुरक्षा चुनौतियों को देखते हुए यह संभव नहीं लग रहा।

कपूर ने कहा कि सैन्य योगदान करने वाले देशों से सलाह किए बिना अभियान का दायरा चार से पांच गुना बढ़ा दिया गया। शांति दूतों पर नागरिकों की रक्षा की अतिरिक्त जिम्मेदारी थी। इसके ऊपर से उन्हें बीते दिसंबर सरकार और विपक्ष के बीच हुए समझौते और चुनावी प्रक्रिया का भी ध्यान रखना था।

उन्होंने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में सीमित क्षमता के साथ शांति दूतों के लिए नागरिकों की रक्षा करना बेहद मुश्किल है। इसी का नतीजा है कि बीती मई में महासचिव एनटोनियो गुटेरस ने परिषद को एक रिपोर्ट भेजी, जिसमें उन्होंने कहा कि समझौता असफल होने के कगार पर है।

मोनुस्को में फिलहाल 3,207 भारतीय काम कर रहे हैं, जिसमें से पांच की जान जा चुकी है। पिछले साल दिसंबर में हुए धमाके में 32 भारतीय शांति दूत घायल हुए थे।

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