प्राचीन भारत में एलजीबीटी समुदाय के पास अधिकार थे : अमीष त्रिपाठी
नई दिल्ली, 3 सितंबर (आईएएनएस)| भारतीय दंड संहिता की धारा 377 कट्टरतापूर्ण एवं संकुचित धारा है और इसे हटाया जाना चाहिए।
इस धारा के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना अपराध है और यह एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और समलैंगिकों) समुदाय के अधिकारों को प्रभावित करता है। यह कहना है अमीष त्रिपाठी का, जिनकी पौराणिक कथाओं की 40 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं।
देश में लेखकों और बुद्धिजीवियों ने धारा 377 खत्म करने के लिए व्यापक समर्थन जताया। लोकप्रिय कवि विक्रम सेठ और लेखक एवं नेता शशि थरूर ने तो खुलकर धारा 37 को खत्म करने की वकालत की थी।
बैंकर से लेखक बने अमीष त्रिपाठी भी धारा 377 को खत्म किए जाने का समर्थन करने वालों की सूची में शुमार हो गए हैं, लेकिन उनके तर्क थोड़े से अलग हैं।
अमीष ने अपनी नॉन-फिक्शन किताब ‘इममोर्टल इंडिया’ में प्राचीन भारत की सभ्यता का विस्तृत परिदृश्य पेश किया है और तर्क दिया कि इसका आधुनिक दृष्टिकोण है।
त्रिपाठी ने इन विवादों को पेश करने से पहले एलजीबीटी अधिकारों पर लिखे अपने लेख में कहा, मेरा विश्वास है कि अब समय आ गया है कि हम भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर बहस करें, जिसके तहत एलजीबीटी के यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाया गया है। यह कट्टर एवं संकुचित धारा है, जिसे समाप्त किया जाना चाहिए। ऐसे भी लोग हैं, जिनके संस्कृति और धर्म के आधार पर आरक्षण हैं। आइए, उन पर चर्चा कीजिए।
त्रिपाठी ने आईएएनएस को बताया, मैं अन्य धर्मो की धार्मिक पौराणिक कथाओं का विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन जहां तक हिंदू ग्रंथों की बात है, तो मुझे लगता है कि इस बात के पर्याप्त उदाहरण हैं कि प्राचीन भारत में एलजीबीटी अधिकार स्वीकार्य थे।
हिंदू परिदृश्य पर लिखी गई उनकी किताब के एक निबंध में उन्होंने प्राचीन ग्रंथों का हवाला दिया है। उन्होंने हिंदू धर्म की धार्मिक किताबों से कई उदाहरण और उपाख्यानों का उल्लेख किया है कि प्राचीन भारत में एलजीबीटी अधिकार स्वीकार्य थे।
उन्होंने कहा, पुरुष नपुंसक नारी वा जीव चराचर कोई/सर्व भाव भज कपट तजी मोहि परम प्रिय सोई।
वह कहते हैं, ये पक्तियां भगवान राम के मुख से रामचरितमानस में कहलवाई गई थी। उन्होंने पुरुष, महिला और समलैंगिकों में कोई भेदभाव नहीं किया। इसका क्या मतलब है? मेरे अनुसार, यह एलजीबीटी की तरफ हमारा उदार प्राचीन व्यवहार है। महाभारत में भी कई उदाहरण हैं। इस तरह की कहानियां प्राचीन भारत में भी थीं और इससे पता चलता है कि एलजीबीटी समुदाय के प्रति हमारे उदार व्यवहार का पता चलता है।
त्रिपाठी ने पुस्तक में यह भी बताया है कि धारा 377 सेक्स की तरफ पारंपरिक भारतीय व्यवहार को नहीं दर्शाती। इसके बजाय यह ब्रिटेन की औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाती है, जो ईसाइयत की मध्ययुगीन विवेचनाओं से प्रभावित है।
उन्होंने कहा, मुझे लगता है कि इस तरह के उदाहरणों से सीखना जरूरी है। यदि हमारा ऐसा समाज था, जिसने प्राचीन भारत में एलजीबीटी समुदायों को स्वीकारा। मुझे लगता है कि हम आज भी इस मानसिकता को स्वीकार कर सकते हैं। निजी आजादी के सिद्धांत के आधार पर यदि विषमलिंगी (हेटरोसेक्सुअल) उस तरीके से अपना जीवन जीना चाहते हैं, जैसा वे चाहते हैं तो एलजीबीटी समुदाय के पास भी समान अधिकार और आजादी होनी चाहिए, यह निर्धारित करने के लिए कि वे किस तरह का जीवन जीना चाहते हैं।
अमीष त्रिपाठी का कहना है कि धर्म अधिकांश समाजों का अंदरूनी भाग है, लेकिन उनके विचार में आधुनिक नियम किसी धर्म के बजाय व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित होने चाहिए।
उन्होंने कहा, मैं बहुत ही गौरवान्वित हिंदू हूं और बहुत ही धार्मिक शख्स हूं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि धार्मिक विश्वासों को आधुनिक विश्व में किसी भी नियम की आधारशिला रखनी चाहिए। आधुनिक नियमों को व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रता की संकल्पना पर आधारित होना चाहिए। हर कोई सभी पहलुओं में समान आजादी और अधिकारों का इस्तेमाल करें। धर्म का समाज में महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन नियमों को धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित होना चाहिए और इन्हें किसी भी धर्म से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
त्रिपाठी की पुस्तकें लगभग 20 भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। उन्होंने वित्तीय सेवा उद्योग में 14 वर्षो तक काम किया और बाद में इसे अलविदा कह दिया। उनके शब्दों में उनकी रॉयल्टी उनके वेतन से अधिक हो गई है।