एक पक्षपातपूर्ण, हिंसक समाज में सफल होने की भी जटिलताएं हैं : अरुं धति रॉय
नई दिल्ली, 27 अगस्त (आईएएनएस)| भारत की बेहद प्रतिष्ठित एवं 1997 में मैन बुकर पुरस्कार जीत चुकीं अरुं धति रॉय का कहना है कि पांच साल की छोटी सी उम्र में उन्होंने बिना हिले-डुले, चुपचाप, एक ही स्थिति में घंटों खड़े रहकर मछली पकड़ना सीखा और शायद इसी ने मुझे साहित्यकार बनाया।
अरुं धति ने आईएएनएस को दिए साक्षात्कार में अपने जीवन के शुरुआती समय और हाल में प्रकाशित अपने दूसरे उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ का बारे में बातचीत की।
अरुं धति का जन्म मेघालय में हुआ, लेकिन माता-पिता के बीच जल्द ही तलाक होने के चलते उनका अधिकांश बचपन केरल में बीता।
अपने पहले उपन्यास की रचना यात्रा की यादें दोहराते हुए अरुं धति ने कहा, मैं एक छोटे से गांव में पली बढ़ी, जहां एक फोन तक नहीं था, न ही टेलीविजन था, न रोस्तरां, न सिनेमाहॉल। लेकिन हर तीन महीने पर एक पुस्तकालय से हमारे पास 100 किताबें आ जाती थीं और यही मेरा जीवन बदलने वाला साबित हुआ। मैं पुस्तकों की अगली खेप का इंतजार करती रहती थी..चूंकि यह उत्तर भारत के किसी गांव जैसा नहीं था, जहां इसका मतलब वंचित तबके से होना होता, बल्कि यहां जाति के आधार पर अलगाव था। वहां जाति के आधार पर भयानक भेदभाव था और मेरी पहली पुस्तक ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ इसी जातिगत भेदभाव के बारे में है।
अरुं धति इसी पुस्तक के लिए 1997 में मैन बुकर पुरस्कार प्रदान किया गया था।
अरुं धति कहती हैं कि इस माहौल में पलना-बढ़ना उनके ‘विशेष बात’ थी, क्योंकि सोशल मीडिया या एसएमएस ने उनका दिमाग खराब नहीं किया।
वह कहती हैं, किसी चीज पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कमाल की चीज होती है।
हालांकि वह यह भी कहती हैं कि वहां सबकुछ बेहतरीन ही नहीं था और जीवन के शुरुआती दिनों में कई वर्षो तक सिर्फ लेखन का विकल्प उनके पास मौजूद नहीं था।
अरुं धति कहती हैं, हम जाति आधारित व्यवस्था में सबसे नीचे तो नहीं थे, लेकिन उन्हें ऐसा लगता था कि उनसे कोई विवाह नहीं करेगा या ऐसा ही कुछ। ऐसा शायद इसलिए भी था, क्योंकि बहुत शुरुआत में ही मेरे मन में आत्मनिर्भर बनने की बात आ गई थी। और आप आत्मनिर्भर तभी हो सकती हैं, जब आप आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों, जिसका मतलब था जल्द से जल्द कुछ करना शुरू करना।
अरुं धति ने 17 साल की अवस्था में घर छोड़ दिया और अब उनके दिमाग से सबसे बड़ी बात यही थी कि वह घर का किराया कैसे चुकाएंगी और महीने के आखिर तक कैसे चलाएंगी।
अरुं धति का कहना है, कई साल ऐसे रहे जब सिर्फ लिखकर काम नहीं चलाया जा सकता था। उस समय यह संभव ही नहीं लगता था कि मैं कभी लेखिका बन पाऊंगी, क्योंकि कई साल तो सिर्फ और सिर्फ पैसों के बारे में सोचते बीते।
और तब मेरी पहली पुस्तक ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ आई, जिसकी पूरी दुनिया में लाखों प्रतियां बिकीं और अरुं धति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हुईं, साथ ही आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी। अरुं धति गल्प कथा के लिए मैन बुकर पुरस्कार जीतने वाली भारत की पहली साहित्यकार बनीं और पुरस्कार स्वरूप मिली राशि को उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन को दान दे दी।
अरुं धति ने कहा, बुकर जीतने का जबरदस्त प्रभाव हुआ। यह सब इतनी तेजी से हुआ कि मुझे इसे जज्ब करने का भी समय नहीं मिला। इससे उबरने में काफी वक्त लगा, क्योंकि जहां कुछ हासिल कर ले जाने का अद्भुत अहसास था, तो साथ ही, जिस तरह की व्यक्ति मैं थी, एक ऐसे देश में रहना जहां बड़ी संख्या लोग पढ़ नहीं सकते, जहां बड़ी संख्या में लोगों के पास खाने तक के लिए कुछ नहीं है, वहां सफल होना वह भी एक पक्षपातपूर्ण और हिंसक समाज में थोड़ा जटिल हो जाता है।
इन तमाम जटिलताओं के बावजूद अरुं धति बुकर जीतने के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी सराही गईं और भारत में भी उन्हें काफी लोकप्रियता मिली।
और तभी 1998 में भारत ने अपना दूसरा परमाणु परीक्षण किया।
अरुं धति उसे याद करते हुए कहती हैं, उस समय जो कुछ घटा वह ये हुआ कि जब मुझे चारों ओर से सराहना मिल रही थी, तभी यह परमाणु परीक्षण हुआ, और मेरे लिए कुछ कहना भी उतना ही राजनीतिक साबित होता, जितना चुप रहना। अगर मैं कुछ न कहती तो मैं भी उस जश्न का हिस्सा बन जाती – एक ऐसी बात का जश्न जिसे मैं पसंद नहीं करती थी।
अरुं धति ने इस परमाणु परीक्षण की आलोचना करते हुए ‘द एंड ऑफ इमैजिनेशन’ शीर्षक से एक लेख लिखा, और इसके साथ ही राजनीतिक और सामाजिक चेतना से युक्त अरुं धति दुनिया के सामने आई।
अरुं धति कहती हैं, मेरे लिए यह एक अलग ही सफर की शुरुआत साबित हुई।
तब से विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय संघर्षो में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाली अरुं धति का दूसरा उपन्यास पूरे 20 साल के अंतराल के बात आता है।
अरुं धति की इस नई पुस्तक ‘द अटमोस्ट हैप्पिनेस’ की आखिरी लाइनें हैं – ‘पास से उड़ती प्यारी चिड़ियों पर बहुत कम लोग ध्यान देते हैं। इसके अलावा आगे देखने के लिए कितनी ही दूसरी चीजें हैं’। यह लाइनें अरुं धति पर भी सटीक बैठती हैं।
अरुं धति की यह पुस्तक भी मैन बुकर पुरस्कार-2017 के लिए चयनित पुस्तकों की सूची में जगह बना चुका है।
अरुं धति ने इस पुस्तक को लिखने में पूरे 10 साल लगाए। वह कहती हैं कि इस उपन्यास के चरित्रों को विकसित होने का उन्होंने पूरा समय दिया और उन्हें इसे खत्म करने की कभी कोई हड़बड़ी नहीं रही।
अरुं धति कहती हैं, उपन्यास जादुई चीज होती है। यह कई तहों में लिपटी हुई दुनिया होती है। और अपनी रचना में उतना ही समय लेती है। मैं इसे इससे तेज या धीमी गति से नहीं लिख सकती थी। इसकी अपनी गति थी और इसने अपनी शर्तो पर अपनी रचना करवाई।