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चूना पैकिंग की कहानी, महिलाओं की जुबानी 

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बाराबंकी । ‘तंबाकू खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’- ये चेतावनी तो आपने कई बार सुनी और पढ़ी भी होगी, पर क्या आप जानते हैं कि तंबाकू में इस्तेमाल होने वाला चूना बाजार तक कैसे आता है और वे कौन लोग हैं जो इस काम से जुड़े हैं?

चूना पैकिंग की कहानी जानने के लिए जाना होगा हैदरगढ़। यहां मोहम्मद मारूफ तीन साल से चूने की फैक्टरी चला रहे हैं। वह खाने वाला चूना तैयार करने की प्रक्रिया बताते हुए कहते हैं कि पहले साधारण चूने को पानी के साथ मिलाकर बड़ी-बड़ी टंकियों में रखा जाता है। फिर चूने से पानी निकालने के लिए उसे महीन कपड़े के थैलों में बंद कर दिया जाता। धीरे-धीरे इससे पानी निकाल जाता है और गीला चूना थैलों में रह जाता है। फिर चूने को छोटी डिबियों में भरा जाता है। डिबियों में चूना भरने का काम हैदरगढ़ की गरीब महिलाएं करती हैं।
यूं तो चूने के फायदों से इनकार नहीं किया जा सकता, पर तंबाकू के साथ इसका मेल नुकसानदेह है। मोहम्मद मारूफ बताते हैं कि उनके यहां जितनी महिलाएं काम करती हैं, उनमें से कई का परिवार चूने की डिब्बी भरने से ही चल रहा है। यहां करीब 100 महिलाएं खाने वाले चूने को डिबियों में भरने का काम करती हैं। इन महिलाओं को 14 किलो चूने की थैली मिलती है, जिसे वे एक-एक किलो की छोटी थैलियों में बांट लेती हैं। उसके बाद डिबियों में भरती हैं। इन महिलाओं को एक किलो चूना डिबियों में भरने के सिर्फ ढाई रुपये मिलते हैं। वे दिनभर में 30 से 35 रुपये तक कमा लेती हैं और महीने में 3500 रुपये कमा पाती हैं।
अफसोस कि इस काम में लगी महिलाओं के हाथ चूने से फट जाते हैं। ये दस्ताने और अंगुलियों में गुब्बारे पहनकर यह काम करती हैं, पर दस्ताने और गुब्बारे भी जल्द खराब जाते हैं। बहुत गरीब परिवारों की इन महिलाओं के लिए पैसा कमाने का दूसरा कोई जरिया नहीं है। अम्बरीन बानो (16) डिब्बी में चूना भरने का काम तीन साल से कर रही है। वह बताती है, “चूने से हाथ में जख्म बन जाते हैं, फिर हम चम्मच से खाना खाती हैं। दस्तानें पहन तो लेती हूं, पर वह जल्द ही चूने में खराब हो जाते हैं। जल्दी-जल्दी दस्तानें खरीदना मुश्किल होता है।”
28 वर्षीय उर्मिला अपने तीन बच्चों के साथ डिब्बी भरने का काम करती हैं। वह जख्म होने पर सरसों का तेल लगा लेती हैं, वह कहती हैं, “हाथ में क्या लगाएं, हमें नहीं पता। सरसों का तेल लगाने से जख्म धीरे-धीरे ठीक हो जाते हैं।” पूनम और किरण भी जख्मों को अनदेखा कर इस काम में लगी हैं।  गांवों में रोजगार की कमी के कारण नुकसान के बावजूद महिलाएं यह मुश्किल काम करती हैं। कहती हैं, “कम ही सही, आखिर पैसा तो मिलता है!”

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