राजनीतिक दल राजनीतिक या व्यावसायिक दल?
किसी भी राजनीतिक दल के गठन का एक ही उद्देश्य होता है, जनहित की रक्षा। जन-जन से जुड़े प्रत्येक मुद्दे को उठाना और उनको हल करवाना ही राजनीतिक दलों का मुख्य उद्देश्य होता है। इसी कारण राजनीतिक दलों को संचालित करने वाले जनप्रतिनिधि कहलाते हैं, यानी जो जनता का प्रतिनिधित्व करे, वही जनप्रतिनिधि कहलाता है। कोई राजनीतिक दल सत्ता में हो या विपक्ष में, लेकिन उसका उद्देश्य एक ही रहता है, जन हित का कल्याण। मगर मौजूदा समय में राजनीतिक दल क्या वास्तविक रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं? यह सवाल अब आमजन के मस्तिष्क में उठने लगे हैं।
यदि देश के राजनीतिक दलों के आर्थिक ढांचे पर निगाह डाली जाए तो राजनीतिक दल जैसे शब्दों के साथ अन्याय ही होगा। वर्तमान परि²श्य में राजनीतिक दल एक व्यावसायिक दल सरीखे दिखाई देते हैं। आपने कभी गौर किया है कि राजनीतिक दलों की आय का स्रोत क्या है? कहने को यह आय चंदे के रूप में प्राप्त होती है, किंतु वास्तविकता कुछ और ही है।
दरअसल, राजनीतिक दलों की आय का सबसे बड़ा हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आता है। आयकर कानून की धारा 13-ए के मुताबिक, राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये या उससे अधिक के चंदों की सूची चुनाव आयोग को देनी होती है। मगर राजनीतिक दलों की कुल आय का मिलान जब प्राप्त चंदों से किया गया तो पता चला कि कुल चंदे का 20 से 25 प्रतिशत हिस्सा ही 20 हजार या उससे अधिक के चंदे से आया है। इसका मतलब करीब 75 से 80 प्रतिशत हिस्सा अज्ञात स्रोतों से प्राप्त होता है।
देश में कालेधन का एक हिस्सा राजनीतिक दलों को अज्ञात स्रोतों से प्राप्त होने वाली आय भी है, जो सार्वजनिक नहीं हो पाती है।
आठ नवंबर को नोटबंदी की घोषणा में प्रधानमंत्री ने तीन लक्ष्य निर्धारित किये थे। देश में कालेधन को समाप्त करना, नकली नोटों के चलन पर पाबंदी और आतंकियों को मिलने वाली आर्थिक सहायता को ध्वस्त करना। चुनाव आयोग द्वारा केंद्र सरकार को भेजे गए एक प्रस्ताव में कहा गया है कि आयकर अधिनियम में आवश्यक संशोधन किए जाने की जरूरत है। इस प्रस्ताव का प्रधानमंत्री ने भी स्वागत किया था। इसके अंर्तगत दो हजार या इससे अधिक के गुप्त दान पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए। इससे राजनीतिक दलों को चंदे से प्राप्त होने वाली आय का वह बड़ा हिस्सा पारदर्शी हो पाएगा जो अभी तक छुपा कर रखा जाता था। राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाले चंदे में पारदर्शिता का अभाव होना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माने जा सकते।
जदयू ने भी राजनीतिक दलों की आय की पाई-पाई पारदर्शी करने की वकालत की थी। अभी हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा दिल्ली स्थित एक बैंक की शाखा पर मारे गए छापे में एक बड़े राजनीतिक दल के बैंक खाते में 100 करोड़ से अधिक धनराशि जमा पाई गई है। यह धनराशि नोटबंदी की घोषणा के बाद जमा हुई है। अब प्रवर्तन निदाशालय इसकी जांच करेगा कि इतनी बड़ी धनराशि का स्रोत क्या है? यह तो मात्र एक मामला प्रकाश में आया है, लेकिन इस प्रकार के कितने मामले और सामने आएंगे, यह आने वाले समय में देखने को मिलेगा। यदि देश से काले धन और भ्रष्टाचार को समाप्त करना है तो राजनीतिक दलों को भी अपनी आय को सार्वजनिक करने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य करना होगा।
आज देश का आम नागरिक काले धन और भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए समर्पित है। इसी कारण नोटबंदी की घोषणा के बाद से जनता लगातार बैंकों की कतार में खड़ी है, वह हर तकलीफ सहन करने को तैयार है, लेकिन भ्रष्टाचार और काले धन को वह पूरी तरह से साफ करने करने को कटिबद्ध है। यदि आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो एक बड़ा खेल यह भी उजागर होता है कि 1952 के पहले आम चुनाव में कुल 53 राजनीतिक दलों ने भाग लिया था। यह आंकड़ा आज 1780 दलों तक आ पहुंचा है।
मतलब इन दलों की वृद्धि में 30 गुने से भी अधिक की बढ़ोतरी हो चुकी है। इन आंकड़ों में बड़ी हिस्सेदारी ऐसे दलों की है, जिनका चुनावों से कोई सरोकार नहीं होता। ऐसे दलों की न ही कोई राजनीतिक जमीन है और न ही जनता के बीच कोई अस्तित्व है। इन दलों का उद्देश्य मात्र राजनीतिक दलों को नियमों में मिली छूट की आड़ में अज्ञात स्रोतों से अर्जित धन को ठिकाने लगाना है।
इन तथाकथित राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने के की दिशा में कदम उठाते हुए चुनाव आयोग ने केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड से इन दलों के वित्तीय लेन देन की जांच करने के लिए कहा है। बोर्ड को बताया गया है कि इस वर्ष फरवरी से 15 दिसंबर तक 255 पंजीकृत राजनीतिक दलों, जो मान्यता प्राप्त नहीं हैं, को सूची से बाहर किया गया है।
चुनाव आयोग के अनुसार, इन दलों ने वर्ष 2005 से 2015 तक किसी भी चुनाव में भाग नहीं लिया है। दरअसल, चुनाव आयोग के पास राजनीतिक दलों के पंजीकरण का अधिकार तो है, मगर उसे रद्द करने का अधिकार नहीं है।
अनुच्छेद 324 के अनुसार, जिन दलों ने लंबे अंतराल से कोई चुनाव नहीं लड़ा है, ऐसे दलों को सूची से हटाने का ही अधिकार चुनाव आयोग के पास है। मसला केवल राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाले चंदों की पारदर्शिता का ही नहीं है, बल्कि अन्य चुनाव सुधारों का भी है।
आखिर क्या वजह है कि राजनीतिक दल स्वयं को सूचना के अधिकार के दायरे में लाए जाने पर सहमत नहीं हैं? जबकि सूचना आयोग ने ‘राष्ट्रीय दल सूचना अधिकार कानून’ के अंतर्गत राजनीति दलों को सार्वजनिक प्राधिकरण परिभाषित किया है। अत: राजनीतिक दलों को इसका पालन करना चाहिए। मगर दुर्भाग्य है कि राजनीतिक दलों ने इसका पालन नहीं किया और यह मामला देश की सर्वोच्च अदालत में पहुंच गया, जहां यह अभी विचाराधीन है।
अब समय की यही मांग है कि केंद्र सरकार लंबित चुनाव सुधारों को गंभीरतापूर्वक लागू करवाए। केवल चुनाव आयोग के प्रस्ताव का स्वागत करने या समर्थन करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला, क्योंकि जनमानस अब यह जानना चाहता है कि कालेधन पर हो रही कार्रवाई के अंतर्गत राजनीतिक दलों के पास मौजूद कालेधन को सार्वजनिक करने की दिशा में कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है।