‘सात उचक्के’ हँसते-हँसते कट जाए समय
हाल फिलहाल दिल्ली पर फिल्में तो बहुत बनी हैं, लेकिन यहां के खास अंदाज को पकड़ पाने में बहुत कम कामयाब हुई हैं। ‘विक्की डोनर’ और ‘खोसला का घोसला’ में लाजपत नगर की पंजाबियत दिखती है, जबकि ‘पीकू’ में चितरंजन पार्क जैसा पॉश इलाका। कई साल पहले आई राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘दिल्ली 6’ पुरानी दिल्ली के अहसास को सतही तौर पर पकड़ पाती है। ‘फुकरे’ में जमुना पार का इलाका था। बाकी कई फिल्मों में दिल्ली और पुरानी दिल्ली का इस्तेमाल केवल लोकेशन के रूप किया गया। लेकिन ‘सात उचक्के’ इन सब बातों से परे है। ये फिल्म देख कर लगता है कि पुरानी दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में काफी अंतर है। जैसे चांदनी चौक का अदब और उठ-बैठ अलग है और फराशखाने एवं तुर्कमान गेट के आस-पास के इलाकों का अंदाज-ए-बयां कुछ अलग।
ये कहानी तुर्कमान गेट के आस-पास के इलाकों के ईर्द-गिर्द ही बुनी गई है। इस कहानी के किरदार कुछ इस तरह हैं। चांदनी महल चौकी का एक इंस्पेक्टर है, जो आते-जाते लोगों से अपने स्कूटर की किक लगवाता है। एक लड़का है, जो लाल किला के आस-पास पर्यटकों को लकड़ी का सांप बेचता है और मौका मिलने पर तो शिलाजीत और अफीम भी। एक और महाशय हैं, जो लोगों के टंटे-झगड़े, पुलिस से सेटिंग कर सुलझाता है। दो परिवारों के बीच फसाद बढ़ाने के लिए ये जनाब एक महिला से खुद उसका ब्लाउज तक फड़वा देते हैं और इन सबके बीच है एक आदमी, जिसका नाम है पप्पी (मनोज बाजपेयी)।
पप्पी को लॉटरी खेलने की लत है, जिसकी वजह से उसके सिर एक चिट फंड वाले का कर्जा है। पप्पी, सोना (अदिति शर्मा) से प्यार करता है और सोना की मां है कि जिसके पास पैसे देखेगी, उसी से अपनी बेटी ब्याह देगी। चाहे तो तेजपाल (केके मेनन) जैसा सनकी इंस्पेक्टर ही क्यों न हो। पप्पी के दो दोस्त हैं खप्पी (आपारशक्ति खुराना) और बब्बे (जतिन सरना)। उसके सुख-दुख के साथी और प्लान बनाने में माहिर। पप्पी को लगता है कि इलाके में रहने वाले दीवान साहब (अनुपम खेर) की हवेली में कहीं खजाना छिपा है। उसके पास इसका कोई सबूत नहीं है, बस उसे लगता है। खप्पी और बब्बे के साथ मिलकर वह एक प्लान बनाता है, जिसमें वह जग्गी तिरछा (विजय राज) और अज्जी (विपुल विग) को भी शामिल कर लेता है। वैसे दीवान का खजाना लूटने के प्लान में सोना भी शामिल है, जो तेजपाल से छुटकारा पाना चाहती है। प्लान की पहली कड़ी है कि पप्पी को झूठ मूठ का मार दिया जाए, जिससे तेजपाल को उस पर शक न हो।
दूसरे चरण में ये सब मिलकर एक रात दीवान की हवेली पर हल्ला बोल देते हैं। उधर, पप्पी के झूठे मर्डर की तफ्तीफ कर रहा तेजपाल एक सुराग के बूते पर हवेली तक आ पहुंचता है। इन सात उचक्कों को वो खजाना वाकई मिल भी जाता है। लेकिन मास्टर गोगो का वो डायलाग है ना… हाथ को आया, पर मुंह न लगाया। इन सातों के साथ भी यही होता है। खजाना तो मिल जाता है, ये उसे ले जा नहीं पाते। और हां एक इस कहानी में एक किरदार बिछ्छी (अनु कपूर) भी है, जो पागलखाने से एक डॉक्टर को पागल करके भागा है।
मोटे तौर पर यह कहानी कुछ ऐसे लोगों की है, जो जिंदगी से हारे हुए हैं, निराश हैं, उनके पास पैसे नहीं है, फिर भी वे खुश हैं। शायद हर भारतीय की तरह। पप्पी और उसके दोस्तों को पैसे चाहिए। टेंशन इनके दिमाग में हमेशा रहती है, लेकिन बात-बात में चुहलबाजी इनसे नहीं छूटती। ये इस इलाके का खास अंदाज है। जो खास इन इलाकों के रहने वाले हैं, वे इसे बखूबी समझ सकते हैं। निर्देशक संजीव शर्मा की पकड़ भले फिल्म पर बखूबी न रही हो, लेकिन उन्होंने इसके किरदार काफी रोचक गढ़े हैं। उन्होंने न केवल इन किरदारों की बोली, हाव-भाव, पहनावे आदि पर पूरा ध्यान दिया है, बल्कि उसे पर्दे पर उकेरा भी है। उनका कैमरा इन संकरी गलियों में बड़ी सहजता से घूमता-फिरता है। कोई खास एंगल नहीं, फिर भी ये गलियां दिल को भाती हैं। हालांकि इन गलियों का माहौल अब दमघोंटू हो चला है, लेकिन यह बात फिल्म के माहौल के आस-पास भी नहीं फटकती।
फिल्म की असली जान इसके किरदार और वे तमाम कलाकार, जिन्होंने इसे रोचक रूप दिया है। मनोज बाजपेयी, केके मेनन के साथ विजय राज जैसे मंझे हुए कलाकारों के अलावा अदिति शर्मा, जतिन सरना, अपारशक्ति खुराना और विपुल विग ने भी कमाल का अभिनय किया है। चर्चित कलाकारों को तो वाहवाही मिलती रहती है, लेकिन ये फिल्म देखकर लगता है कि इन नए कलाकारों का उत्साह बढ़ाने के लिए इन्हें और फिल्में मिलनी चाहिए।
फिल्म अच्छी है और पल-पल मजा भी देती है, लेकिन कई जगहों पर यह काफी खिंची हुई भी दिखती है। खासतौर से अंत के क्षणों में। दो घंटे की इस फिल्म से अनावश्यक गीतों को निकाल कर करीब 15-20 मिनट और कम किया जा सकता था, इसका पूर्ण गुंजाइश दिखती है। दूसरा ये कि चोरी के प्लान को थोड़ा उलझा भी दिया गया है और निर्देशक का पूरा ध्यान केवल किरदारों को रोचक बनाने में उलझ गया है। हालांकि यही फिल्म का प्लस प्वाइंट भी है।
अगर आप पुरानी दिल्ली के कुछेक इलाकों के बाशिंदों से ही वाकिफ हैं तो इस बार नजर तुर्कमान गेट की तरफ भी डालिए, जो कनॉट प्लेस से महज दो-ढाई किमी. ही दूर है। कई जगह बे वजह की गाली-गलौच के बावजूद ये फिल्म हंसाती, ठहाके भी लगवाती है और एक हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ विदा हो जाती है।