क्या प्रियंका मोदी की वाक्पटुता का मुकाबला कर पाएंगी?
क्या प्रियंका वाड्रा, राहुल गांधी का ब्रहमास्त्र हैं, जिनका निशाना केवल भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) है? या कांग्रेस अध्यक्ष के निशाने पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा)-बहुजन समाज पार्टी (बसपा) गठबंधन भी है?
भाजपा जाहिर तौर पर कांग्रेस की मुख्य विरोधी है, लेकिन भारत की राजनीति को बमुश्किल ही श्वेत-श्याम में वर्णित किया जा सकता है। यहां कुछ अस्पष्ट स्थिति भी है, जो दोस्तों और दुश्मनों के आधार को धुंधला कर देती है।
इस बात के भी थोड़े संकेत हैं कि सपा और बसपा ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए राज्यस्तर पर छोटा गठबंधन कर 134 वर्ष पुरानी पार्टी को 80 में से केवल दो सीटें दी, जिससे भी कांग्रेस नाराज है।
गठबंधन से बाहर रखने के झटके को कुछ उदार शब्दों से सहज बनाने की कोशिश की गई, और उसके जवाब में सपा के अखिलेश यादव ने भी राहुल गांधी के प्रति ‘सम्मान’ का भाव दिखाया। लेकिन बसपा की मायावती कठोर बनी रहीं। उन्होंने इससे पहले मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के साथ सीट बंटवारे की बातचीत अचानक समाप्त कर दी थी।
उत्तर प्रदेश में अपमान से आहत, कांग्रेस ने राज्य की सभी 80 सीटों पर लड़ने की प्रतिबद्धता जताई। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए प्रियंका वाड्रा की पार्टी महासचिव के रूप में नियुक्ति पार्टी के अतिरिक्त प्रयास से जुड़ा हो सकता है, जिसमें कांग्रेस उस राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करेगी, जहां वह एक दशक से अपनी उपस्थिति नहीं दर्ज करा पाई है।
इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी महासचित ज्योदिरादित्य सिंधिया को बनाया गया है।
सपा-बसपा गठबंधन कांग्रेस के फिर से पुनर्जीवित होने से बहुत खुश नहीं होंगी। इस बात के भी थोड़े संकेत हैं कि परिवार के करिश्माई चेहरे को मैदान में लाने से पार्टी में उत्साह का नया संचार होगा, जिसका कार्यकर्ता लंबे समय से इंतजार कर रहे थे।
क्या यह सरगर्मी जमीनी स्तर पर काम करेगी, जहां सपा-बसपा गठबंधन ने अपने पास 75 सीटें रखी हैं? इनमें से सपा के पास 37, बसपा के पास 38 और राष्ट्रीय लोकदल के पास तीन और कांग्रेस के लिए दो सीटें छोड़ी गई हैं।
इस समय, सपा, बसपा और रालोद ये उम्मीद कर रहे हैं कि उनके पास पिछड़ी जाति, जाटवों और जाटों का अभेद्य समर्थन है।
अब वे यह उम्मीद कर रहे होंगे कि पुनर्जीवित कांग्रेस भाजपा से सवर्ण जाति का वोट छीन लेगी, जिससे धर्मनिरपेक्ष पार्टियां जातिगत समीकरण के साथ जीत सुनिश्चित कर लेंगी।
लेकिन यह भी संभव है कि सपा-बसपा-रालोद, कांग्रेस और भाजपा के बीच मतों का बंटवारा हो जाएगा। इससे भाजपा को फायदा हो सकता है, अगर सपा-बसपा-रालोद और कांग्रेस के बीच मुस्लिम मत बंट जाए।
इसके अलावा, राहुल गांधी ने कहा था कि कांग्रेस बैकफुट पर नहीं खेलेगी, जिसकी पार्टी के निर्णय में स्पष्ट झलक दिख रही है। पार्टी ने आंध्रप्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से गठजोड़ नहीं किया है, जिसका मतलब है कि कुछ राज्यों में प्रत्येक सीटों पर भाजपा के खिलाफ एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ उम्मीदवार उतारना संभव नहीं होगा।
जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की बातों के कमजोर प्रभाव का आकलन करना आसान है।
इस लिहाज से प्रियंका गांधी के राजनीति में प्रवेश का एक अस्थिरकारी प्रभाव हो सकता है, जो मित्र जोड़ने और लोगों को प्रभावित करने के मामले में कांग्रेस के लिए हमेशा लाभदायक नहीं भी हो सकता है।
माना जा रहा है कि वह अपने बातचीत के कौशल और भीड़ के साथ एक जीवंत और सहानुभूतिपूर्ण संवाद कौशल से कांग्रेस में एक राजनीतिक ऊर्जा का प्रवाह करेगी, जिससे प्रधानमंत्री बनने का उनके भाई का दावा और मजबूत हो सकता है।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच.डी.कुमारस्वामी पहले ही, राहुल गांधी को धर्मनिरपेक्ष दलों का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने के द्रमुक नेता एम.के.स्टालिन के प्रस्ताव का समर्थन कर चुके हैं।
धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के बीच इस उठा-पटक से भाजपा खुश होगी। इसके साथ ही भाजपा की सहयोगी शिवसेना ने प्रियंका गांधी के राजनीति में प्रवेश को कांग्रेस के लिए ‘अच्छे दिन’ कहा।
शिवसेना के एक प्रवक्ता ने हालांकि इंदिरा गांधी और उनकी पोती के बीच आमतौर पर स्पष्ट समानता को दोहराया है। इसके अलावा एक और प्रवक्ता ने उस ‘रिश्ते’ की बात की, जो नेहरू-गांधी परिवार के साथ भारत के लोगों से बना है।
भाजपा नरेंद्र मोदी के वाक्पटुता पर निर्भर है, लेकिन इस क्षेत्र में प्रियंका वाड्रा के हमलों से भाजपा को सावधान रहना होगा। क्योंकि वह इस तरह की चुनौती पेश कर सकती हैं, जिसका भाजपा ने बीते साढ़े चार वर्षो में सामना नहीं किया है।
भाजपा को इसके अलावा भीड़ को आकर्षित करने की प्रियंका वाड्रा की कला को भी सावधानी से देखना होगा कि क्या वह नेहरू व इंदिरा गांधी के करिश्मे को दोहरा सकती हैं।