अपने ही देश से कहीं बेदखल न हो जाएं बौद्ध आचार्य
पटना, 7 अक्टूबर (आईएएनएस)| बौद्ध धर्म के इतिहास में ‘मंत्रयान’ और ‘वज्रयान’ की शिक्षा के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध रहे विक्रमशिला महाविहार व भारतीय धर्म, इतिहास तथा संस्कृति में महती योगदान करनेवाले आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश को लेकर कई इतिहासकारों में काफी मतभिन्नता है। ऐसे में क्षेत्रीय इतिहासकार शिव शंकर सिंह पारिजात की पुस्तक ‘विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के महान् आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश’ कई मामलों की जानकारी उपलब्ध कराता है।
नई दिल्ली के अनामिका प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक (17 अध्याय, 315 पृष्ठ, मूल्य 900 रुपये में न सिर्फ विक्रमशिला की विद्वतमंडली के सबसे दीप्तिमान आचार्य दीपंकर के व्यक्तित्व, तित्व, जीवन, दर्शन-उपदेश व उनके अवदान की मीमांसा करता है, बल्कि कतिपय अहम मुद्दों को उठाकर विक्रमशिला और आचार्य दीपंकर के विमर्श को प्रासांगिकता भी प्रदान करता है।
बौद्धधर्म के अवसान काल में जहां विक्रमशिला में इसकी अंतिम लौ टिमटिमाई, वहीं तिब्बत में दीपंकर अतिश को भारत के अंतिम महान् बौद्ध आचार्य माने जाते हैं। आचार्य दीपंकर ने ‘बोधि पथ प्रदीप’ व ‘चर्या संग्रह प्रदीप’ सहित 200 से अधिक ग्रंथों की रचना की है।
वैसे, विक्रमशिला की विडंबना रही कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा वर्ष 1970 के दशक में खुदाई होने तक इसका लोकेशन (स्थान) विवादास्पद बना रहा। पारिजात के इस पुस्तक की प्रस्तावना में स्वयं विक्रमशिला की खुदाई करनेवाले पुराविद् डॉ.बी़ एस़ वर्मा बताते हैं कि बांग्लादेश स्थित सोमपुरा विहार के साथ अद्भुत साम्यता के कारण कई विद्वानों ने इसे ही विक्रमशिला समझने की भूल कर दी थी।
इसी के आधार पर विद्वानों का एक वर्ग आचार्य दीपंकर का जन्म स्थान बांग्ला देश के ढाका के निकट स्थित विक्रमानीपुर होना मानता रहा, जबकि तिब्बत की दुर्गम यात्रा कर वहां से लाए गए दीपंकर की जीवनी के आधार पर पंडित राहुल सांकृत्यायन आजीवन यह दावा करते रहे कि आचार्य दीपंकर का जन्म विक्रमशिला के निकट स्थित ‘सहोर राज्य’ में हुआ था जो उन दिनों विक्रमशिला से लेकर वर्तमान भागलपुर तक फैला था। विद्वानों द्वारा इस पर सम्यक शोध-अध्ययन नहीं किए जाने के कारण मामला विवादों से घिरा रहा।
राहुल सांकृत्यायन के उस दावे के 70 वर्षो के बाद पहली बार शिव शंकर सिंह ‘पारिजात’ ने गहराई से काम किया और तिब्बती ग्रथों में वर्णित उस सहोर राज्य के वर्तमान क्षेत्र में प्राप्त पुरातात्विक संरचनाओं, पुरावशेषों, मूर्तियों, ढूहों, बिहार सरकार के हालिया सर्वेक्षण रिपोर्ट सहित प्रमाणिक ग्रंथों के आधार पर दावा किया है कि आचार्य दीपंकर का जन्मस्थान भागलपुर जिले का ओलपुरा या सौरडीह नामक स्थान है, जिसकी सम्यक खुदाई कराने पर पूरी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
गौरतलब है कि अभी भी बिहार सरकार या केंद्र सरकार या यहां के इतिहासकार और जानकार आचार्य दीपंकर के जन्मस्थान के मसले को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, लेकिन आज की तिथि में इसके अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थ को आसानी से समझा जा सकता है।
पारिजात आईएएनएस से कहते हैं, “आचार्य दीपंकर की कर्मस्थली होने के कारण तिब्बतियों की विक्रमशिला के प्रति अगाध श्रद्धा है और प्रति वर्ष बड़ी संख्या में वे यहां वे आते हैं।”
उन्होंने आगे कहा, “इतिहास व संस्कृति को अपने नए राजनयिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करनेवाला चीन भारत से तिब्बतियों की आस्था विमुख करने की मंशा से न सिर्फ आचार्य दीपंकर के जन्मस्थान के रूप में बांग्लादेश के विक्रमानीपुर को प्रचारित कर रहा है, वहां दीपंकर के नाम पर मंदिर बनवा उसमें तिब्बत से मंगवाकर उनका अस्थि-कलश भी स्थापित करवा दिया।”
विक्रमशिला और उसके आचार्य दीपंकर से संबंधित पारिजात की पुस्तक पर लगातार विद्वानों के मत प्राप्त हो रहे हैं।
पुस्तक में वृहद् रूप से संदर्भ ग्रंथों व पाद टिप्पणियों के उपयोग पर जहां एएसआई के उत्तरी क्षेत्र के पूर्व निदेशक पुराविद् मोहम्मद क़े के. का कहना है, “इससे दीपंकर पर अग्रेतर अध्ययन में सुविधा होगी।”
तिलका मांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डॉ. बिहारी लाल चौधरी पुस्तक के सारगर्भित कंटेंट को देखते हुए इस पर पीएचडी उपाधि के लिए शोध कराने की योजना बना रहे हैं।
पंडित राहुल सांत्यायन की पुत्री जया एस़ पड़हाक का मानना है कि इस पुस्तक को राहुल जी के नाम समर्पित कर उनकी 125वीं जयंती वर्ष में उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी गई है।
एस़ एम़ कॉलेज, भागलपुर के स्नातकोत्तर इतिहास विभागाध्यक्ष डॉ. रमन सिन्हा का कहना है कि यदि समय रहते आचार्य दीपंकर के जन्मस्थान के मसले की सुधि नहीं ली जाती है तो कहीं अपना देश अपनी महान् विभूति को कहीं खो न बैठे।