जब संजय धृतराष्ट्र बन जाएं!
नई दिल्ली, 6 अगस्त (आईएएनएस)| जी हां, यह पंक्ति टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के ट्वीट से ही ली गई है, जो इन दिनों चारों तरफ चर्चा में हैं। चर्चाएं तरह-तरह की हैं, तरह-तरह के कोणों से हो रही हैं। जिसके पास जिस नंबर का चश्मा है, वह उस हिसाब से देख रहा है, चर्चा कर रहा है। लेकिन इस बीच चर्चा का असली मुद्दा छूटता जा रहा है। आप कह सकते हैं कि ‘हमारे पास भी एक चश्मा है।’
सवाल यह नहीं है कि एबीपी न्यूज ने मिलिंद खांडेकर, पुण्य प्रसून वाजपेयी को इस्तीफा देने के लिए कहा और अभिसार शर्मा को छुट्टी पर भेज दिया, या उन्होंने किसी कारणवश खुद इस्तीफा दे दिया। सवाल यह भी नहीं है कि अन्य मीडिया संस्थानों में इससे पहले और आज भी मीडियाकर्मियों को निकाला जाता रहा है, या निकाला जा रहा है, और उस पर कभी किसी ने इतना हो-हल्ला नहीं मचाया। दरअसल, आज भी जो हो-हल्ला हो रहा है, वह बेमानी ही है, क्योंकि जो होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है।
बहरहाल, असली मुद्दा है मीडिया में सरकारी हस्तक्षेप का, और उसके आगे मीडिया संस्थान के घुटने टेकने का, और उस पर बाकी मीडिया संस्थानों की खतरनाक चुप्पी का। बेशक विपक्ष ने इस मामले को संसद में उठाया, और सत्तापक्ष ने खंडन कर दिया। लेकिन कथित तौर पर जिस रपट को लेकर ये सारी कवायद चल रही है, उसके खिलाफ सरकार के कई मंत्रियों के आक्रामक ट्वीट के क्या मायने हैं? और इन ट्वीट्स पर मीडिया संस्थान चुप क्यों रहे हैं?
यदि देश के सभी मीडिया संस्थान मंत्रियों के उन ट्वीट के खिलाफ एबीपी न्यूज के साथ एकजुटता दिखाए होते, तो हमारा चश्मा यह कह रहा है कि एबीपी न्यूज से दोनों पत्रकारों के जाने की घटना ही नहीं घटी होती।
बेशक, उन ट्वीट के खिलाफ एबीपी न्यूज ने कोई रुख जाहिर न कर घोर अपराध किया है, लेकिन बाकी के उन मीडिया संस्थानों और पत्रकारों ने भी उतना ही अपराध किया है, जिन्होंने या तो चुप्पी साध ली, या फिर वे विपक्ष बन गए। क्योंकि यह मुद्दा मीडिया की आजादी पर हमले का था, अकेले एबीपी न्यूज का नहीं।
हमें अक्सर यह देखने को मिला है कि जब भी मीडिया की आजादी पर हमले का मामला सामने आता है, उसे खास मीडिया संस्थान का निजी मामला मानकर बाकी मीडिया संस्थान अपनी बारी का ही इंतजार कर रहे होते हैं।
यदि हमारे चश्मे का नंबर घट-बढ़ गया हो, तो हम अमेरिका के आईने में अपने चेहरे को तो कम से कम देख ही सकते हैं। अमेरिका में पिछले महीने सीएनएन की एक संवाददाता कैटलान कॉलिंस को व्हाइट हाउस प्रशासन ने एक संवाददाता सम्मेलन में आने से इसलिए प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि उन्होंने इसके पहले एक कार्यक्रम में राष्ट्रपति ट्रंप से एक ऐसा सवाल पूछ लिया था, जो ट्रंप को पसंद नहीं था। व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव सारा सैंडर्स ने हालांकि कहा था कि सीएनएन किसी दूसरे संवाददाता को कार्यक्रम में भेज सकता है।
यदि हमारे यहां (देश में) किसी संवाददाता के बारे में सरकार की तरफ से इस तरह की टिप्पणी आई होती तो कोई भी संस्थान बेहिचक अपना दूसरा प्रतिनिधि भेज देता, और हो सकता था कि उस संवाददाता की छुट्टी भी कर दी जाती। लेकिन सीएनएन ने अपने संवाददाता का साथ दिया। व्हाइट हाउस संवाददाता संघ ने सीएनएन का साथ दिया। यही नहीं, सीएनएन के प्रतिद्वंद्वी जिस मीडिया संस्थान की ट्रंप अक्सर प्रशंसा करते रहे हैं, उस फॉक्स न्यूज ने सीएनएन के साथ एकजुटता दिखाई। फॉक्स न्यूज के अध्यक्ष जे वैलेस ने सीएनएन के समर्थन में बाकायदा बयान जारी किया, क्योंकि मुद्दा मीडिया में सरकारी हस्तक्षेप का था, मीडिया के सवाल पूछने पर सरकारी हमले का था, मीडिया की आजादी पर अंकुश लगाने का था।
पत्रकारिता में सरकारी हस्तक्षेप के सवाल पर अमेरिका का पूरा मीडिया सरकार के खिलाफ एकजुट! ऐसे में भला किस ट्रंप, किस सरकार की हिमाकत हो सकती है मीडिया में हस्तक्षेप करने की, और क्यों किसी पत्रकार को ऐसे हस्तक्षेप के कारण इस्तीफा देने की नौबत आएगी। लेकिन हमारे यहां तो गंगा ही उलटी बह रही है। मीडिया संस्थान बगलें झांकते दिखे। एडिटर्स गिल्ड मौन है।
बेशक, सरकार ने हस्तक्षेप के आरोपों का खंडन कर दिया है, लेकिन एबीपी न्यूज ने तो इस तरह का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया कि सरकार की तरफ से कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया? कई कोनों से इस तरह की भी बातें हैं कि तीनों पत्रकारों की तरफ से कोई स्पष्टीकण नहीं आया है, जबकि पुण्य प्रसून बराबर बोल रहे हैं। वैसे भी वे किस मनस्थिति में हैं और क्यों अपनी बात नहीं रख रहे हैं, उनके अपने कारण हो सकते हैं, लेकिन उनके एबीपी न्यूज छोड़ने के पीछे के जो कारण सार्वजनिक तौर पर गिनाए जा रहे हैं, उनका उन्होंने खंडन भी तो नहीं किया है।
फिर एडिटर्स गिल्ड क्यों मौन है, बाकी मीडिया संस्थान क्यों मौन हैं, गिने-चुने पत्रकारों को छोड़कर बाकी पत्रकारों की दुनिया क्यों मौन है? तो क्या हम सभी संजय, धृतराष्ट्र बन गए हैं?
वाकई यदि ऐसा है तो धृतराष्ट्र निश्चितरूप से युधिष्ठिर बन जाएगा। फिर हमें इस महाभारत के परिणाम को लेकर भी अभी से सुनिश्चित हो जाना चाहिए। किसी पक्ष की तरफ कोई दीया जलाने वाला नहीं रह जाएगा।