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शाह-नीतीश की ‘डिनर डिप्लोमेसी’ से भाजपा-जदयू में खटास घटी

पटना, 13 जुलाई (आईएएनएस)| भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह अपने दो दिवसीय बिहार दौरे के बाद शुक्रवार को यहां से रवाना हो गए। इस दौरे के दौरान शाह ने जहां भाजपा कार्यकर्ताओं में जोश भरा, वहीं नीतीश और शाह की ‘डिनर डिप्लोमेसी’ से दोनों दलों में बढ़ती खटास भी कम हो गई है।

बिहार दौरे के क्रम में शाह की सुबह के नाश्ते और रात के खाने पर मुख्यमंत्री और जनता दल (युनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार से मुलाकात हुई। इस दौरान दोनों नेताओं ने करीब 40 मिनट तक अकेले में बात की। जदयू के सूत्रों की मानें तो सीट बंटवारे को लेकर फॉर्मूला लगभग तय हो चुका है।

भाजपा भी जानती है कि बिहार की राजनीति में करीब तीन दशकों से अपनी धमक कायम रखने वाली नीतीश की पार्टी पिछले लोकसभा चुनाव में भले ही दो सीटों पर सिमट गई हो, लेकिन अभी भी बिहार के मतदाताओं में नीतीश की स्वच्छ छवि के प्रति आकर्षण बरकरार है। नीतीश भी इस आकर्षण और वजूद को काफूर होने देना नहीं चाहते।

भाजपा के वरिष्ठ नेता सी़ पी़ ठाकुर भी कहते हैं कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री हैं, ऐसे में आगामी लोकसभा चुनाव में बिहार में वही ‘बड़े भाई’ की भूमिका में रहेंगे।

शाह के बिहार दौरे के पहले भाजपा और जदयू ‘बड़े भाई’ और ‘छोटे भाई’ की भूमिका, यानी ज्यादा सीटों के दावे को लेकर आमने-सामने आ गए थे। उधर महागठबंधन में शामिल कांग्रेस भी मौका देखकर नीतीश पर डोरे डाल रही थी तो सबसे ‘बड़ा भाई’ राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ‘नो इंट्री’ का साइनबोर्ड दिखाने लगा था।

गौरतलब है कि दोनों दलों की बयानबाजी के दौरान जदयू ने कहा था कि पिछले लोकसभा चुनाव के फॉर्मूले पर चलते हुए उसे 40 में से 25 सीटें मिलनी चाहिए। जदयू ने यहां तक कह दिया था कि अगर भाजपा नहीं मानती है, तो वह सभी 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार सकता है।

अब शाह के दौरे के बाद जदयू के सुर भी बदल गए हैं। जदयू के प्रवक्ता संजय सिंह कहते हैं कि दोनों दलों में कहीं कोई मतभेद नहीं है। दोनों दल मिलकर चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा कि बिहार की सभी सीटों पर जीतना उनके दल की प्राथमिकता है।

राज्यसभा सांसद और भाजपा नेता ठाकुर कहते हैं, राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते नीतीश कुमार ही बड़े भाई हैं।

उन्होंने हालांकि यह भी कहा, राजनीति में बड़े और छोटे भाई बदलते रहते हैं। समय के अनुसार बड़ा भाई छोटा हो जाता है और छोटा भाई बड़ा हो जाता है।

पिछले लोकसभा चुनाव में जदयू अकेले चुनाव मैदान में उतरी थी और उसे मात्र दो सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था, जबकि भाजपा को 40 में से 22 सीटें मिली थीं। इस हिसाब से भाजपा खुद को बड़ा भाई बताने लगी थी तो जदयू को विधानसभा चुनाव में मिली 71 सीटों का गुमान था, विधानसभा चुनाव में भाजपा 53 सीटों पर सिमट गई थी।

राजग के अन्य सहयोगी दलों लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) को क्रमश: छह और तीन सीटें मिली थीं।

सूत्रों का कहना है कि जदयू लोकसभा चुनाव के बहाने दबाव की रणनीति के तहत आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अभी ही बात तय कर लेना चाहता है। इस स्थिति में नीतीश का वजूद भी बिहार में बना रह सकेगा।

पिछले विधानसभा चुनाव में अमित शाह पटना के होटल मौर्या में तीन महीने तक डेरा डाले रहे, अंत में उन्होंने ब्रह्मास्त्र (अगर बिहार में बीजेपी हारी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे) चलाया था और प्रधानमंत्री ने बोली लगाने के अंदाज में बिहार के लिए सवा लाख करोड़ के विशेष पैकेज का ऐलान किया था। बिहार की जनता का दिल फिर भी भाजपा के लिए नहीं पसीजा था। भाजपा को बिहार की सत्ता में लाने का जो काम मोदी और शाह नहीं कर पाए, वह नीतीश ने चंद मिनटों में कर दिखाया। तरीका भले ही लोकतांत्रिक नहीं था, मगर भाजपा के लिए यह काम नीतीश ही कर पाए, इस बात का अहसास शाह को है।

शाह ने गुरुवार को स्पष्ट कर दिया था कि नीतीश के जदयू के साथ भाजपा का गठबंधन अटूट है। ऐसे में अब देखना होगा कि बंद कमरे में शाह और नीतीश की 40 मिनट की मुलाकात में 40 सीटों के बंटवारे को लेकर क्या फॉर्मूला तय हुआ है। शाह भले ही सभी 40 सीटों पर जीत का दावा करें, लेकिन विधानसभा चुनाव में 80 सीटें जीतने वाले और हाल के उपचुनावों में अपना दबदबा कायम रखने वाले राजद को भला कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है?

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