उत्तराखंडी महिलाओं की मेहनत का प्रतीक है ‘डोका’
उत्तराखंड के उखीमठ, केदारनाथ, पिथौरागढ़ व ऊपरी पर्वती क्षेत्रों में है अधिक चलन
” रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में, नदी की तरह बहती , कोंपलो की तरह फूटती । ज़िंदगी की आंख से दिन-रात इस तरह, और कोई झरता है क्या ? ऐसा कोई करता है क्या ? … सच में औरतें बेहद अजीब होती हैं ।” ….. गुलज़ार
महिलाओं के संघर्ष को बयां करती गुलज़ार साहब की लिखी गई ये पंक्तियां सचमुच में महिलाओं के हर दिन की कहानी बयां करती हैं। उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग ज़िले के सारी गांव की रहने वाली गंगादेवी नेगी ( 36 वर्ष ) सुबह जल्दी उठती हैं। बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने के बाद हाथों में छोटी सी हसियां लिए खेत की ओर चल देना उनकी हर रोज़ की दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है।
उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग ज़िले के उखीमठ ब्लॉक में करीब 54 किमी. पूर्वोत्तर दिशा में स्थित सारी गांव में बांस की बनी बड़ी सी टोकरी अपने पास रखे खेत में जानवरों के लिए चारा काट रही गंगादेवी से खास टोकरी के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया,” पंद्रह साल पहले जब शादी के बाद गांव आए थे, तब सास ने डोका थमा दी। खेत मे चारा काटने के बाद इसी में घास लाते हैं।”
डोका बांस की बनी टोकरी होती हैं, ये कई प्रकार की होती हैं। इसको उत्तराखंड के कई हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
उत्तराखंड की महिलाओं और डोका का बहुत ही गहरा रिश्ता होता है। बांस की बनी ये टोकरियां महिलाओं की मेहनत का परिचय देती हैं। ठेठ पहाड़ी शैली में बनी ये खास कृषि टोकरी उत्तराखंड के उखीमठ, केदारनाथ, पिथौरागढ़ व ऊपरी पर्वती क्षेत्रों की महिलाएं अधिक प्रयोग करती हैं।
पर्वती संस्कृतिक उत्थान मंच, हल्द्वानी ( उत्तराखंड) के प्रमुख चंद्रशेखर तिवारी ( 68 वर्ष) बताते हैं, ” उत्तराखंड में रिंगाल (एक खास तरह का पहाड़ी बांस) खूब पाया जाता है। अधिकतर बांस की टोकरी इसी बांस की बनती हैं। रिंगासल अधिकतर पिथौरागढ़, मुंशियारी और रूद्रप्रयाग जैसे क्षेत्रों में देखने को मिलता है।” उन्होंने आगे बताया कि रिंगाल की बनी टोकरियां कई आकार की होती हैं और इनका प्रयोग भी अलग- अलग कामों के लिए होता है।
उत्तराखंडी टोकरियों के प्रकार –
नाम – काम टोकरी – अनाज रखने वाली टोकरी
डोका – बड़े आकार वाली कृषि के कामों में आने वाली टोकरी
डलिया – गहरी टोकरी घर का सामान रखने की टोकरी
पुथुका – अनाज व सामान रखने टोकरी
दवाक / रूंगडा – दो कवच वाली टोकरी भारी सामान रखने के लिए, कभी-कभार बच्चों को भी रखा जाता है।
” ये महिलाएं किसी आम शहरी महिलाओं से बिलकुल भी भिन्न नहीं हैं। ज़्यादातर शहरी कामकाजी महिलाएं दफ्तर या रोज़ाना की शॉपिंग के वक्त हैंडबैग या बैकपैक ( पीठ में टांगने वाले झोले) का प्रयोग करती हैं। उसी शैली में पहाड़ों पर रहने वाली अधिकतर महिलाएं रोज़ाना के कामकाज में डोका का प्रयोग करता हैं। ” चंद्रशेखर तिवारी।
सारी गांव के नज़दीक देवरिया ताल के रास्ते पर पड़ने वाले अोमकार, रत्नेश्वर महादेव मंदिर के परिसर से सटे हुए घर में नंदारानी ( 40 वर्ष) डोका का प्रयोग घरेलू सामान लाने ले जाने के लिए करती हैं। सारी गांव में लगने वाली स्थानीय बाज़ार से सामान खरीदकर घर लाने के लिए नंदारानी की तरह ही गांव की बाकी महिलाएं डोका का प्रयोग करती हैं।
” कंधे पर डोका लाद कर कभी-कभी हम बहुत दूर निकल जाते हैं। ये बहुत बड़ा होता है, इसमें सामान भी ज़्यादा आ जाता है। यहां पर आपको हर घर में तीन से चार डोका ज़रूर मिल जाएंगे। ये हमारे लिए बहुत काम का है।” नंदारानी बताती हैं।
पर्वती संस्कृतिक उत्थान मंच के मुताबिक पहाड़ी हस्तकला से निर्मित टोकरियों का बड़ा महत्व है। इसे उत्तराखंड ही नहीं असम, हिमाचल व सिक्किम में कुछ भागों में रहने वाली महिलाएं व पुरूष बड़े ही गर्व से पहनते हैं। क्योंकि इन टोकरियों से ही उनका दैनिक कामकाज जुड़ा होता है, इसलिए पहाड़ों पर इन टोकरियों को बड़ी हिफाज़त से रखा जाता है।
पहाड़ी बांस से बना डोका का वज़न औसतन एक से डेढ़ किलो होता है। इस टोकरी को लेकर महिलाएं दूर पहाड़ों तक निकल जाती हैं। टोकरी, डोका, डलिया, दवाक और पुथुका जैसे नाम आपको उत्तराखंड के हर पहाड़ी गांव में सुनने को मिल जाएंगे, लेकिन उत्तराखंड की महिलाओं के लिए ये महज़ एक टोकरी ही नहीं , ये उनके जीवन का अहम अंग बन चुका है।